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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
अर्थात् - हे
पुत्र ! स्त्री और पुत्र आदि को पालन करने के लिये अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने वाले गृहस्थों का जो मार्ग है उसी मार्ग से तुमको भी चलना चाहिये । अणे अण्णेहिं मुच्छिया, मोहं जंति णारा असंवुडा ।
विसमं विसमेहिं गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगब्भिया ॥ २० ॥
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कठिन शब्दार्थ - मुच्छिया - मूर्च्छित - आसक्त होकर, जंति प्राप्त होते हैं, विसमेहिं विषम असंयमी पुरुषों द्वारा, विसमं असंयम, गाहिया - ग्रहण कराये हुए, पगब्भिया - धृष्ट हो जाते हैं ।
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भावार्थ- कोई संयम हीन पुरुष सम्बन्धीजनों के उपदेश से माता पिता आदि में मूर्च्छित होकर मोह को प्राप्त होते हैं । वे, असंयमी पुरुषों के द्वारा असंयम ग्रहण कराए हुए फिर पाप कर्म करने में धृष्ट (निर्लज्ज - ढीट) हो जाते हैं ।
विवेचन - उपरोक्त रूप से अनुकूल और प्रतिकूल परीषह दिये जाने पर कोई नवदीक्षित कायर पुरुष संयम को छोड़ कर गृहस्थ बन जाता है और फिर गृहस्थ के वे ही सावद्य कार्य करने लग जाता है। जिस सावद्य कार्य को एक वक्त छोड़ दिया उस कार्य को फिर से करने लग जाना धृष्टता कहलाता । धृष्ट बना हुआ पुरुष उस सावद्य (पाप) कार्य करते हुए लज्जित भी नहीं होता है। तम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ विरएऽभिणिव्वुडे ।
पणया वीरा महावीहिं, सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - इक्ख देखो, पणया प्रणत- प्राप्त करते हैं, महावीहिं - महावीथि महामार्ग को, सिद्धिपहं - सिद्धिपथ-सिद्धि का मार्ग, णेयाउयं
नैयायिक (नेता) ले जाने वाला धुवं - ध्रुव । भावार्थ - माता पिता आदि के प्रेम में फंस कर जीव पाप करने में धृष्ट हो जाते हैं इसलिए हे पुरुष ! तुम मुक्ति गमन योग्य अथवा रागद्वेष रहित होकर विचार करो । हे पुरुष ! तुम सत् और असत् विवेक से युक्त, पाप रहित और शान्त बन जाओ । कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष उस महत् मार्ग से चलते हैं जो मोक्ष के पास ले जाने वाला ध्रुव और सिद्धि मार्ग हैं ।
वेयालिय मग्ग मागओ, मण वयसा काएण संवुडो ।
चिच्च वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरे ।। २२ ।। त्ति बेमि ॥
कठिन शब्दार्थ - वेयालिय मग्गं - वैदारक मार्ग-कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग में, आगओ - आकर, संवुडो - संवृत्त - गुप्त होकर, णायओ ज्ञातिजन को, सुसंवुडे - सुसंवृत्त - उत्तम संयमी होकर ।
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