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________________ अध्ययन ३ उद्देशक ३ ११५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000००० वैयावृत्य कहते हैं। इसके दस भेद बतलाये गये हैं यथा - १. आचार्य २. उपाध्याय ३. स्थविर ४. तपस्वी ५, रोगी ६. शैक्ष अर्थात् नवदीक्षित ७. कुल (एक आचार्य का शिष्य परिवार) ८. गण (साथ पढ़ने वाले साधु तथा अनेक आचार्यों का शिष्य परिवार) ९. संघ (अनेक गणों का समूह) १०. साधर्मिक अर्थात् समान धर्म वाले साधु इन दस की वैयावृत्य करना। (भगवती २५/७) . प्रश्न- वैयावच्च का क्या फल होता है ? उत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में बतलाया गया है कि - वैयावृत्य करने से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध होता है। ४२ पुण्य प्रकृतियों में तीर्थङ्कर नामकर्म प्रकृति सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है। उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें समाचारी अध्ययन में साधु की दिनचर्या बतलाई गई है। इसमें वैयावृत्य विषयक जो गाथायें दी गई हैं उनसे भी यह मालूम होता है कि यह वैयावृत्य साधु के लिये आवश्यक कर्तव्य है और स्वाध्याय से भी प्रधान है। 'पुट्विाल्लम्मि चउब्भाए, आइच्चम्मि समुट्ठिए। भंडयं पडिलेहित्ता, बंदित्ता य तओ गुरुं ॥८॥ पुच्छिज्ज पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इह। इच्छं निओइउं भंते !, वेयावच्चे व सज्झाए ॥९॥ वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वं अगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमोक्खणे ॥१०॥ अर्थ - सूर्योदय होने पर पहले पहर के चौथे भाग में वस्त्र पात्र आदि की प्रतिलेखना करे . उसके बाद गुरु महाराज को वन्दना करके हाथ जोड़ कर यह पूछे कि - हे भगवन् ! मुझे क्या करना चाहिये ? आप चाहें तो मुझे वैयावृत्य में लगा दीजिये अथवा स्वाध्याय में। गुरु देव द्वारा वैयावृत्य में नियुक्त किये जाने पर साधु को अग्लान भाव से अर्थात् ग्लानि भाव त्याग कर वैयावृत्य करनी चाहिये। . ओघ नियुक्ति के टीकाकार ने गाथा ६२ की टीका में ग्लान साधु की सेवा की महत्ता दिखाने के लिये ये गाथा उद्धृत की है जो गिलाणं पडियरइ, सो ममं पडियरइ। जो ममं पडियरइ, सो गिलाणं पडियरइ ॥ - अर्थ - भगवान् कहते हैं जो ग्लान साधु की सेवा करता है वह मेरी सेवा करता है जो मेरी सेवा करता है वह ग्लान साधु की सेवा करता है। . संखाय पेसलं धम्म, दिट्टिमं परिणिव्वुडे । उवसग्गे णियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएज्जाऽसि।त्ति बेमि ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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