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अध्ययन ११
२६३
वहां यदि कोई धर्मबुद्धि से जीव हिंसामय कार्य करे तो आत्मा को पाप से दूर रखने वाला जितेन्द्रिय साधु उसकी अनुमति न देवे ।
विवेचन - मुनि का धर्मोपदेश सुनकर कोई श्रद्धालु व्यक्ति दानशाला, प्याऊ, अन्न क्षेत्र आदि खोलना चाहता हो और वह साधु के पास आकर पूछे कि इस कार्य में धर्म है या नहीं अथवा न पूछे तो साधु उसके लिहाज से, शर्म से अथवा भय से, प्राणियों की हिंसा करते हुए उस पुरुष को अनुज्ञा (अनुमोदन) न करें। अर्थात् मन-वचन-काया से गुप्त होकर तथा इन्द्रियों को वश में करके साधु सावद्य अनुष्ठान का अनुमोदन न करे।। १६॥ .
तहा गिरं समारब्भ, अत्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - गिरं - वाणी को, समारब्भ - सुन कर, पुण्णंति - पुण्य है यह, वए - कहे, महब्भयं - महान् भयदायक।
भावार्थ - यदि कोई कूप आदि खोदाना चाहता हुआ साधु से पूछे कि मेरे इस कार्य में पुण्य है या नहीं है ?" तो इस वाणी को सुनकर साधु, पुण्य है यह न कहे तथा पुण्य नहीं है यह कहना भी भय का कारण है इसलिये यह भी न कहे । - विवेचन - यदि कोई राजा, महाराजा, सेठ-साऊकार आदि श्रद्धालु व्यक्ति साधु से यह पूछे कि मैं कुआँ खुदाना चाहता हूँ तथा अन्नक्षेत्र बनाना चाहता हूँ। मेरे इस कार्य में पुण्य है या नहीं? तो उसकी वाणी सुनकर साधु 'पुण्य है या नहीं इन दोनों उत्तरों में दोष जानकर साधु कुछ न कहे किन्तु मौन रहे। मौन रहने का कारण शास्त्रकार अगली गाथा में बता रहे हैं।
दाणट्ठया य जे पाणा, हम्मति तस थावरा । तेसिं सारक्खणट्ठाए, तम्हा अस्थि त्ति णो वए । १८।
कठिन शब्दार्थ - दाणट्ठया - दान के लिए, हम्मंति - मारे जाते हैं, सारक्खणट्ठाए - संरक्षणरक्षा के लिए। ____ भावार्थ - अन्नदान और जलदान देने के लिये जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं उनकी रक्षा के लिये साधु "पुण्य होता है" यह न कहे ।
विवेचन - अन्न शाला या जलशाला आदि कार्यों में पचन-पाचन आदि क्रिया के द्वारा आहार बनाया जाता है और जलशाला बनाने में साक्षात् जल के जीवों का एवं उसके आश्रित दूसरे त्रस और स्थावर प्राणियों का नाश होता है। अतः इनकी रक्षा के लिए आत्मगुप्त जितेन्द्रिय साधु इस कार्य से । पुण्य है ऐसा न कहें।
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