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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ .
जेसिं तं उवकप्पंति, अण्ण पाणं तहाविहं । तेसिं लाभंतरायंति, तम्हा णत्थि त्ति णो वए ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - उवकप्पंति - बनाये जाते हैं, लाभंतरायं- लाभान्तराय-प्राप्ति में विघ्न । ..
भावार्थ - जिन प्राणियों को दान देने के लिये वह अन्न जल तय्यार किया जाता है उनके लाभ में अन्तराय न हो, इसलिये पुण्य नहीं है यह भी साधु न कहे।
विवेचन - अन्नदान के लिए पचन-पाचन आदि क्रिया करने में तथा जलदान के लिए कूप खुदवाना आदि कार्य में बहुत जीव मारे जाते हैं। इसलिए इस कार्य में पुण्य नहीं होता है, ऐसा साधु । क्यों नहीं कह देता है, उसका उत्तर यह है कि जिन प्राणियों को दान देने के लिए अन्न और जल धर्म समझ कर बनाया जाता है, उस अन्न, जल दान देने में पुण्य नहीं है। ऐसा कह देने पर जिन प्राणियों को वह अन्न, जल दिया जाने वाला है, उनके लाभ में अन्तराय पडेगी, इसलिए इन कार्यों में पुण्य नहीं होता है, ऐसा भी साधु साध्वी न कहें।
जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥२०॥
कठिन शब्दार्थ - दाणं - दान की, पसंसंति - प्रशंसा करते हैं, वहं - वध, इच्छंति - इच्छा करते हैं, पडिसेहंति - प्रतिषेध-निषेध करते हैं, वित्तिच्छेयं - वृत्ति छेद ।
भावार्थ - जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो दान का निषेध करते हैं वे प्राणियों की वृत्ति का छेदन करते हैं। ..
विवेचन - इसी बात को संक्षेप से स्पष्ट बताने के लिए, शास्त्रकार.कहते हैं कि अन्नशाला और जलशाला खोलने आदि दानों को बहुत जीवों का उपकारक है। ऐसा मानकर जो इनकी प्रशंसा करते हैं, उनको प्राणियों की हिंसा का अनुमोदन रूप पाप लगता है तथा जो इनका निषेध कर देता है, उनको अन्तराय का पाप लगता है।
दुहओ वि ते ण भासंति, अत्थि वा णत्थि वा पुणो। , आयं रयस्स हेच्या णं, णिव्वाणं पाउणंति ते ॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - दुहओ - दोनों, आयं - आगमन, रयस्स- कर्मरज का, हेच्चा - त्याग कर, णिव्याणं - निर्वाण को, पाउणंति- प्राप्त करते हैं । .
भावार्थ - अन्नशाला जलशाला आदि दानों में पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता है ये दोनों ही बात साधु नहीं कहते हैं । इस प्रकार कर्म का आना त्याग कर वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
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