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________________ अध्ययन ५ उद्देशक २ १५९ ०००००००००००००००००००००००००००००000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - भिदुग्गा - अतिदुर्गम विषम, लोहविलीण-तत्ता - आग से गले हुए लोहद्रव के समान उष्ण जल युक्त, एगायऽताणुक्कमणं करेंति - अकेले पार करते हैं । भावार्थ - सदाजला नामक एक नरक नदी है उसमें जल सदा (हमेशा) रहता है इसलिये वह सदाजला कहलाती है । वह नदी बड़ी कष्टदायिनी है । उसका जल क्षार, पीव (रस्सी) और रक्त से सदा मलिन रहता है और वह आग से गले हुए लोह के द्रव के समान अति उष्ण जल को धारण करती है । उस नदी में बिचारे नैरयिक जीव रक्षक रहित अकेले तैरते हैं । एयाइं फासाइं फुसंति बालं, णिरंतरं तत्थ चिरट्टिईयं ।। ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं ।। २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - फासाई - स्पर्श (दुःख) हम्ममाणस्स - मारे जाते हुए नैरयिक का, ताणं - रक्षक, एगो - अकेला, सयं - स्वयं, पच्चणुहोइ - अनुभव करता है । भावार्थ - पहले के दो उद्देशों में जिन कठिन दुःखों का वर्णन किया है वे सब दुःख निरन्तर अज्ञानी नैरयिक जीवों को होते रहते हैं । उस नैरयिक जीव की आयु भी लम्बी होती है और उस दुःख से उसकी रक्षा भी नहीं हो सकती है वह अकेले उक्त दुःखों को भोगता है उसकी सहायता कोई नहीं कर सकता है। जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छइ संपराए । एगंत दुक्खं भवमज्जणित्ता, वेयंति दुक्खी तमणंत-दुक्खं ॥ २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - जारिसं - जैसा, पुव्वं - पूर्व जन्म में, अकासी - किया है, आगच्छइ - आता है, संपराए - संसार में, भवं - भव को, अज्जणित्ता - अर्जन करके, अणंत दुक्खं - अनंत दुःखों को, वेयंति - भोगते हैं। . भावार्थ - जिस जीव ने जैसा कर्म किया है वही उसके दूसरे भव में प्राप्त होता है । जिसने एकान्त दुःख रूप नरक भव का कर्म किया है वह अनन्त दुःखरूप उस नरक को भोगता है । एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे, ण हिंसए किंचण सव्वलोए । एगंत दिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुझिज्ज लोयस्स वसं ण गच्छे ॥ २४ ॥ कठिन शब्दार्थ - धीरे - धीर पुरुष, किंचण - किसी प्रायी की, एगंतदिट्ठी - एकान्त दृष्टि, अपरिग्गहे - अपरिग्रही, बुझिज- समझे, वसं - वश में । भावार्थ - विद्वान् पुरुष इन नरकों के दुःखों को सुन कर सब लोक में किसी भी प्राणी की हिंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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