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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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न करे । किन्तु जीवादि तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा रखता हुआ परिग्रह रहित होकर कषायों का स्वरूप जानें और कभी भी उनके वश में न होवे अर्थात् कषाय न करे ।
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एवं तिरिक्खे मणुया सुरेसुं, चतुरंतऽणंतं तयणुव्विवागं ।
स सव्वमेयं इति वेयइत्ता, कंखेज्ज कालं भुयमायरेज्ज ।। ति बेमि ॥ २५ ॥
कठिन शब्दार्थ - चतुरंत चतुर्गतिक, अणंतं अनंत संसार, तयणुव्विवागं - उनके अनुरूप विपाक को, वेयइत्ता - जान कर, कालं मरण काल की, कंखेज्ज कांक्षा करे, धुयं ध्रुव - मोक्ष अथवा संयम का, आयरेज्ज - पालन करे ।
भावार्थ - जैसे पापी पुरुष की नरक गति कही है इसी तरह तिर्यंच गति मनुष्य गति और देवगति: भी जाननी चाहिये । इन चार गतियों से युक्त संसार अनन्त और कर्मानुरूप फल देने वाला है । अतः बुद्धिमान् पुरुष इसे जान कर मरण पर्य्यन्त संयम का पालन करे ।
त्तिबेमि इति ब्रवीमि श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ ।
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विवेचन - इस नरक विभक्ति अध्ययन में नैरयिक जीवों के दुःखों का वर्णन किया गया है। शास्त्रकार फरमाते हैं कि अशुभ कर्म करने वाले प्नाणियों को दूसरी गतियों में भी अर्थात् तिर्यञ्च मनुष्य और देव गति में भी अपने किये हुए अशुभ कर्मों का फल प्राप्त होता है। इन सब बातों को जान कर बुद्धिमान् पुरुषों का कर्तव्य है कि वह अठारह ही पापों का सर्वथा त्याग कर मृत्युपर्यंत संयम का पालन करे। इससे शीघ्र ही चारों गति के दुःखों से छुटकारा पाकर मोक्ष के अव्याबाध अनन्त सुखों का भागी बन जाय ।
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।। इति दूसरा उद्देशक ॥
॥ नरक विभक्ति नामक पांचवां अध्ययन समाप्त ॥
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