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अध्ययन८
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विवेचन - अकुशल (पापकारी) मन, वचन और काया को रोक कर जिन्होंने अपनी आत्मा को निर्मल रखा है तथा जिन्होंने पांच इन्द्रियों को वश किया है ऐसे महापुरुष प्राणातिपात से लेकर मिथ्या दर्शन शल्य तक अठारह ही पापों का भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल सम्बन्धी पाप कार्य करे नहीं, करावे नहीं, करते हुए को भला जाने नहीं मन, वचन, काया से। इस प्रकार पापकार्य का तीन करण तीन योग से त्याग होता है।
जे याऽबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्त-दंसिणो । असुद्धं तेसिं परवंतं, सफलं होइ सव्वसो ।। २२॥
कठिन शब्दार्थ - अबुद्धा - अबुद्ध-धर्म के रहस्य को नहीं जानने वाले, महाभागा - महाभाग (महापूज्य) असमत्तदंसिणो - असम्यक्त्वदर्शी, असुद्धं - अशुद्ध, परक्कंतं - पराक्रम, सफलं - सफल-कर्म बंध युक्त । . . ___ भावार्थ - जो पुरुष लोक पूज्य तथा बड़े वीर हैं वे यदि धर्म के रहस्य को न जानने वाले मिथ्या दृष्टि हैं तो उनका किया हुआ सभी तप दान आदि अशुद्ध हैं और वह कर्म बन्धन को उत्पन्न करता है ।
जे य बुद्धा महाभागा, वीरा समत्तदंसिणो । . सुद्धं तेसिं परवंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥
कठिन शब्दार्थ - बुद्धा - बुद्ध-तत्त्व को जानने वाले, समत्तदंसिणो - सम्यक्त्वदर्शी, अफलं - अफल-कर्म बंध रहित।
भावार्थ - जो वस्तु तत्त्व को जानने वाले महापूजनीय एवं कर्म को विदारण करने में समर्थ सम्यग्दृष्टि हैं उनका तप आदि अनुष्ठान शुद्ध तथा कर्म के नाश के लिये होता है ।
..विवेचन - स्वयंमेव बोध को प्राप्त हुए तीर्थङ्कर तथा उनके उपदेश से बोध पाये हुए बुद्धबोधित गणधर आदि जों कर्म विदारण करने में समर्थ है, ज्ञानादि गुणों से युक्त है तथा वस्तु के सच्चे स्वरूप को जानने और देखने वाले हैं उन महापुरुषों का तप-जप, यम, नियम आदि क्रिया कर्म बन्ध के प्रति निष्फल होती है। वह संसार परिभ्रमण रहित केवल निर्जरा के लिये होती है। क्योंकि सम्यग् दृष्टियों
की सभी क्रियाएं संयम और तप प्रधान होती है। उसमें संयम से आस्रव का निरोध होता है और तप से निर्जरा होती है। जैसा कि भगवती सूत्र का पाठ है - "संजमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले" अर्थ - संयम से आने वाले आस्रवों का निरोध होता है और तप से पूर्व संचित आस्रवों की निर्जरा होती है।
तेसिं पि ण तवो सुद्धो, णिक्खंता जे महाकुला । जंणेवण्णे वियाणंति, ण सिलोगं पवेज्जए ।। २४॥
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