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________________ २१८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "जाणं वा णो जाणं ति वदेजा।" ऐसा पाठ आया है अनुमान ऐसा लगता है कि इस पाठ को लक्ष्य करके टीकाकार ने उपरोक्त अर्थ लिख दिया है परन्तु इस पाठ की पूर्वापर संगति को देखते हुए ऐसा अर्थ करना आगमानुकूल है कि जानता हुआ भी मैं जानता हूँ ऐसा न कहे. अर्थात् मौन रहे। ऐसा अर्थ करने से ही साधु का व्रत निर्मल रह सकता है। जैसा यह आलापक है ऐसे इसी अध्ययन में दूसरे आलापक भी हैं। जैसे कि अमुक गांव यहाँ से कितना दूर है ? अमुक गांव का राजा कौन है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में भी यही पाठ आया है ( जाणं वाणो जाणं ति वदेजा) इसलिये उपरोक्त आलापक का भी यही अर्थ करना चाहिए कि साधु जानता हुआ भी मैं जानता हूँ ऐसा उत्तर न दे किन्तु मौन रहे। दीक्षा ग्रहण करते समय झूठ बोलने का तीन करण तीन योग से त्याग किया था। इस व्रत का पालन जीवन पर्यन्त करे। अतिक्कम्मं ति वायाए, मणसा वि ण पत्थए । सव्वओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ-अतिक्कम्म- अतिक्रम, पत्थए - इच्छा करे, संवुडे - संवृत, दंते - दान्त, इन्द्रियों का दमन करने वाला, आयाणं - आदान-उपादान, सुसमाहरे - अच्छी तरह से ग्रहण करे। .. भावार्थ - वाणी या मन से किसी जीव को पीडा देने की इच्छा न करे किन्तु बाहर और भीतर से गुप्त और इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु अच्छी रीति से संयम का पालन करे । विवेचन - व्रत के चार दोष हैं - अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार। यहाँ पर अतिक्रम का अर्थ है व्रत की मर्यादा का उल्लंघन करना। मुनि का पहला महाव्रत है-प्राणातिपात विरमण। प्राणियों को पीड़ा देना अर्थात् मन, वचन, काया से पीड़ा देना, पीड़ा दिलवाना और अनुमोदन करना इन तीनों करणों से और तीनों योगों से प्राणातिपात आदि पाप क्रिया न करे तथा सब प्रकार से बाहर और भीतर से गुप्त और इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु मोक्ष देने वाले सम्यग्-दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि का तत्परता के साथ पालन करे। कडं च कज्जमाणं च, आगमिस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ।। २१॥ कठिन शब्दार्थ - कडं - कृत-किया हुआ, कजमाणं - क्रियमाण-किया जाता हुआ, आगमिस्संभविष्य में किया जाने वाला, ण - नहीं, अणुजाणंति - अनुमोदन करते हैं, आयगुत्ता - आत्मगुप्तगुप्तात्मा, जिइंदिया - जितेन्द्रिय । भावार्थ - अपनी आत्मा को पाप से गुप्त रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुष किसी के द्वारा किये हुए तथा किये जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का अनुमोदन नहीं करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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