________________
२२०
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ .
कठिन शब्दार्थ - तवो - तप, सुद्धो - शुद्ध, णिक्खंता - अभिनिष्क्रमण कर, महाकुला - बड़े कुलों से, अण्णे- दूसरे लोग, सिलोगं - प्रशंसा ।
भावार्थ - जो लोग बड़े कुल में उत्पन्न होकर अपने तप की प्रशंसा करते हैं अथवा पूजा सत्कार .. पाने के लिये तप करते हैं उनका भी तप अशुद्ध है अतः साधु अपने तप को इस प्रकार गुप्त रखे जिसमें दान में श्रद्धा रखने वाले लोग न जाने तथा साधु अपने मुख से अपनी प्रशंसा भी न करे । ।
विवेचन - जिनका इक्ष्वाकु आदि बड़ा कुल है तथा शूरवीरता आदि के द्वारा जिनका यश जगत् में फैला हुआ है उनका तप भी यदि पूजा और सत्कार पाने की इच्छा से किया गया हो तो वह तप अशुद्ध हो जाता है अतः आत्मार्थी पुरुषों को चाहिए कि उसके तप को लोग न जान सके। इस प्रकार गुप्त रखे तथा वह अपने तप की प्रशंसा भी न करें कि "मेरा उत्तम कुल है, मेरा धनवन्तों के यहां जन्म हुआ है और अब तप से अपने शरीर को तपाने वाला उत्कृष्ट तपस्वी हूँ।" इस प्रकार अपने आप प्रगट करके अपने अनुष्ठान को निःसार न बनावे। .
अप्प-पिंडासि-पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए। खंतेऽभिणिव्वुडे दंते, वीतगिद्धी सया जए ॥२५॥
कठिन शब्दार्थ - अप्प - थोड़ा, पिंडासि - आहार करे, पाणासि - जल पीवे, भासेज - : बोले, सुव्वए - सुव्रत, खंते - क्षमाशील, अभिणिव्वुडे - शांत, दंते - दांत, वीतगिद्धी - आसक्ति रहित, जए - संयम में रत रहे ।
भावार्थ - साधु उदर निर्वाह मात्र के लिये थोड़ा भोजन करे एवं थोड़ा जल पीवे । थोड़ा बोले तथा क्षमाशील और लोभादि रहित, जितेन्द्रिय एवं विषय भोग में अनासक्त रहा हुआ सदा संयम का अनुष्ठान करे ।
विवेचन - जो ग्रास (कुवा-कवल) मुख में सरलता पूर्व आ सके, आँख आदि विकृत न बने, गाल न फूल जाय इस प्रकार के कवल को कुकुटी अण्डक प्रमाण कहा है। जिस साधु-साध्वी का जितना आहार होता है अर्थात् जितने आहार से उसकी उदर पूर्ति होकर तृप्ति हो जाय उतने आहार को बत्तीस कवल प्रमाण कहा है अर्थात् पुरुष के लिये बत्तीस, स्त्री के लिए अट्ठाईस और नपुंसक के लिये चौबीस कवल प्रमाण आहार प्रमाणोपेत कहा गया है। इससे कम आहार करना ऊणोदरी तप कहलाता है। साधु-साध्वी को हमेशा ऊणोदरी तप ही करना चाहिए। जिससे शरीर स्वस्थ रहे, मन की शान्ति बनी रहे और स्वाध्याय में चित्त सरलता से लगा रहे। इसी तरह पानी में कुछ कमी रखना पानक ऊणोदरी है अतः साधु को एक-एक कवल घटाने का अभ्यास करके सदा ऊणोदरी तप करना चाहिए। इसी तरह पानी और दूसरे उपकरणों में भी ऊणोदरी करनी चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org