________________
३१८
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
पंडिए वीरियं लब्द्धं णिग्यायाय पवत्तगं । धुणे पुव्वकडं कम्म, णवं वा वि ण कुव्वइ ॥२२॥
कठिन शब्दार्थ - वीरियं - वीर्य को, लद्धं - प्राप्त कर, णिग्यायाय - कर्म क्षय के लिए, धुणे - नाश करे, णवं - नवीन, कम्मं - कर्म का।
भावार्थ - पंडित पुरुष, कर्म को विदारण करने में समर्थ वीर्य को प्राप्त करके पूर्वकृत कर्म को । नाश करे और नवीन कर्म न करे ।
ण कुव्वइ महावीरे, अणुपुवकडं रयं । रयसा संमुहीभूता, कम्मं हेच्याण जं मयं ॥ २३॥
कठिन शब्दार्थ - अणुपुवकडं - अनुक्रम से पूर्व कृत, रयं - कर्म रज को, हिच्चाण - छोड़ कर, संमुहीभूता - सम्मुखीभूत - मोक्ष के सन्मुख, मयं - मत । _____ भावार्थ - दूसरे प्राणी मिथ्यात्व आदि क्रम से जो पाप करते हैं उस कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष नहीं करता है । पूर्वभवों में किये हुए पाप के द्वारा ही नूतन पाप किये जाते हैं परन्तु उस पुरुष ने पूर्वकृत पापों को रोक दिया है और आठ प्रकार के कर्मों को त्याग कर वह मोक्ष के संमुख हुआ है ।
विवेचन - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से पाप कर्म का बन्ध होता है। जो पुरुष उनका त्याग कर देता है वह मोक्ष या तप संयम के सन्मुख हुआ है ऐसा जानना चाहिए।
जं मयं सव्वसाहूणं, तं मयं सालगत्तणं । साहइत्ताण तं तिण्णा, देवा वा अभविंसु ते।। २४॥ .कठिन शब्दार्थ - सव्यसाहूणं - सभी साधुओं का, सल्लगत्तणं - शल्य को काटने वाला, साहइत्ताण - साधना करके, तिण्णा - तिर गये हैं, अभविंसु- प्राप्त किया है ।
भावार्थ - सब साधुओं का मान्य जो संयम है वह पाप को नाश करनेवाला है इसलिये बहुत जीवों ने उसकी आराधना करके संसार सागर को पार किया है अथवा देवलोक को प्राप्त किया है।
विवेचन - शुद्ध संयम का पालन करने वाले मुनि उसी भव में मोक्ष जाते हैं किन्तु कुछ कर्म यदि शेष रह जाय तो वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं।
अभविंसु पुरा भी(वी)रा, आगमिस्सा वि सुब्बया । दुण्णिबोहस्स मग्गस्स, अंतं पाठकरा तिण्णा ।।२५।। तिमि॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org