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________________ २२४ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ही बढ़ता है, आरम्भ में लगे हुए, विषय लोलुप वे जीव, दुःख देने वाले आठ प्रकार के कर्मों को त्यागने वाले नहीं हैं । आघाय-किच्चमाहेङ, णाइणो विसएसिणो । अण्णे हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चइ ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - आघाय - आघात-मरण, किच्चं-कार्य आहे - करके णाइणो - ज्ञातिजन, विसएसिणो - विषय की एषणा करने वाले, हरंति - हरण कर लेते हैं, वित्तं - धन को, कम्मी- पाप कर्मी, कम्मेहि - कर्म से, किच्चइ - करता है-दुःख पाता है-फल भोगता है। भावार्थ - ज्ञातिवर्ग धन के लोभी होते हैं वे दाहसंस्कार आदि मरणक्रिया करने के पश्चात् उस मृत व्यक्ति का धन हर लेते हैं । परन्तु पापकर्म करके धनसञ्चय किया हुआ वह मृत व्यक्ति अकेला ही अपने पाप का फल भोगता है.। विवेचन - जब व्यक्ति मर जाता है तब उसके स्वजन सम्बन्धी उसका अग्नि संस्कार आदि मृत्यु कार्य करके फिर उसके धन को बांट लेते जैसा कि कहा है - ततस्तेनार्जितैव्यैर्दा रैश्च परिरक्षितैः। क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टास्तुष्टा हलङ्कृताः॥ अर्थ - 'जिस पुरुष ने अनेक पाप कार्य करके धन संग्रह किया है तथा जिन स्त्रियों का अच्छी तरह से रक्षण किया है उसके मर जाने के पश्चात् दूसरे लोग उस धन के मालिक बन जाते हैं और अलंकृत होकर स्त्री आदि के साथ क्रीड़ा करते हैं और मौज उड़ाते हैं। परन्तु धन के लिये पापकर्म करने वाला पुरुष अकेला ही उस पाप कर्म का फल भोगता है और संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखी होता है। माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा। णालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - ण्हुसा - स्नुषा-पुत्रवधू, भाया - भ्राता-भाई, भज्जा - भार्या-स्त्री, ओरसा - औरस पुत्र, ण - नहीं अलं - समर्थ, लुप्पंतस्स - दुःख भोगते हुए, ताणाय - रक्षा करने में । भावार्थ - अपने पाप का फल दुःख भोगते हुए प्राणी को, माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, स्त्री और औरस पुत्र आदि कोई भी नहीं बचा सकते हैं । . विवेचन - जन्म देने वाले माता-पिता, सहोदर भाई, अपनी स्त्री तथा अपने निजी बेटे, सासू, ससुर आदि कोई भी दुःख से पीड़ित होते हुए उस पुरुष की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। जब कि वे इसी लोक के दुःख से प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते तो परलोक में तो रक्षा कर ही कैसे सकते हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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