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________________ . [5] का प्रतिपादन किया है, तीसरे उद्देशक में आधाकर्मी आहार के सेवन से होने वाले दोष बतलाये गये हैं। चौथे उद्देशक में परवादियों की असंयमी गृहस्थों के साथ आचार सदृशता बतलाई गई. है। अन्त में अविरति रूप कर्मबन्ध से बचने के लिए अहिंसा, कषाय विजय आदि स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है! द्वितीय अध्ययन 'बैतालीय' - इस अध्ययन में कर्म अथवा कर्मों के बीज रूप राग, द्वेष, मोह आदि को विदार (विदारण-विनाश करना) का उपदेश दिया गया है। इसके प्रथम उद्देशक में बोध को प्राप्त करने को कहा गया है। दूसरे उद्देशक में आसक्ति के त्याग का उपदेश और तीसरे उद्देशक में अज्ञान जनित कर्मों के क्षय का उपाय बतलाया गया है। तीसरा अध्ययन 'उपसर्ग परिज्ञा' - मोक्ष मार्ग की साधना करने वाले साधक को साधना के दौरान अनेक अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आते हैं। कच्चे साधक इन उपसर्गो से विचलित होकर संयम मार्ग से विचलित हो जाते हैं। पर जो पक्के साधक होते हैं वे उपसर्ग आने पर संयम में दृढ़ से दृढ़तर और दृढ़तम बन कर आगे बढ़ते जाते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। चौथा अध्ययन 'स्त्री परिज्ञा' - स्त्री संसर्ग, आसक्ति, मोह आदि से साधक की साधना चोपट हो जाती है। अतएव साधक को इस ओर सतत् सावधानी रखनी चाहिए। तनिक भी असावधानी उसके श्रमणत्व का विनाश करने वाली हो सकती है। पंचम अध्ययन 'नरक विभक्ति' - कर्म सिद्धान्त के अनुसार जो जीव हिंसा असत्य, चोरी, व्यभिचार, महाआरम्भ, परिग्रह के कार्य, पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा, मांसाहार आदि का सेवन करता है, वह अपने पापाचरण के फल को भोगने के लिए नरक गति में जन्म लेते हैं। वह नरक का क्षेत्र कैसा है? वहाँ जीव की किस-किस प्रकार की वंदना भुगतनी पड़ती है। इसका सविस्तार इस अध्ययन में निरूपण किया गया है। छटा अध्ययन 'वीरस्तुति' - इस अध्ययन में प्रभु महावीर के ज्ञानादि गुणों के बारे में जम्बूस्वामी द्वारा पूछने पर गणधर प्रभु सुधर्मा स्वामी द्वारा स्तुति के रूप भगवन् के गुणों का सांगोपांग रूप से प्रस्तुत किया है। जम्बूस्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी को प्रत्यक्ष नहीं देखा था। अतएव उनके प्रत्यक्ष दृष्टा गणधर सुधर्मा स्वामी से अनेक उत्कृष्ट आदर्श जीवन के बारे में जिज्ञासा करने पर उनका सुधर्मा स्वामी ने समाधान किया। सातवाँ अध्ययन 'कुशील परिभाषा' - वैसे तो संसार में अनेक जीव कुशील है, उनकी विवक्षा यहाँ नहीं की गई है। मुख्यता साधुओं की सुशीलता और कुशीलता का इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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