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________________ ३८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एवं तु समणा एगे, वट्टमाण-सुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव, घातमेस्संति णंतसों ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - वट्टमाणसुहेसिणो - वर्तमान सुख की इच्छा करने वाले, घातमेस्संति - घात को प्राप्त करेंगे। भावार्थ - इसी तरह वर्तमान सुख की इच्छा करने वाले कोई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्तवार घात (मृत्यु) को प्राप्त होंगे । विवेचन - ऊपर की गाथा में मछली का दृष्टान्त देकर इस गाथा में रसलोलुपी श्रमणों को द्राष्टान्तिक रूप से बतलाया गया है। रसनेन्द्रिय की लोलुपता से ही आहार के दोषों का सेवन होता है । जब तक रस (काम गुण) पर काबू नहीं होता तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का, पूर्ण अहिंसा का, पूर्ण सत्य का, पूर्ण अचौर्य का और पूर्ण अपरिग्रह का पालन होना कठिन है । रसासक्त व्यक्ति अपने आपको ठगता रहता है और आत्म गुणों की घात करता रहता है । इसलिये जन्म मरण के चक्कर में फंसा रहता है । इणमण्णं तु अण्णाणं, इहमेगेसिमाहियं । . देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्ते ति आवरे ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - देवउत्ते - देवोप्त-देव के द्वारा उत्पन्न किया गया, बंभउत्ते - ब्रह्मोप्त-ब्रह्मा का बनाया हुआ, आवरे - दूसरे कहते हैं । भावार्थ - पूर्वोक्त अज्ञान के सिवाय दूसरा एक अज्ञान यह भी है - कोई कहते हैं कि 'यह लोक किसी देवता द्वारा बनाया गया है' और दूसरे कहते हैं कि - 'ब्रह्मा ने यह लोक बनाया है।' विवेचन - किन्हीं का यह कथन है कि जैसे किसान बीज बोकर धान्य उत्पन्न करता है इसी तरह किसी देवता ने इस लोक को उत्पन्न किया है। दूसरे किन्हीं की मान्यता है कि यह लोक ब्रह्मा के द्वारा किया गया है। ब्रह्मा जगत् का पितामह (दादा) है। वह जगत्. की आदि में एक ही था। उसने प्रजापति को बनाया और प्रजापति ने इस जगत् को बनाया। ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीव समाउत्ते, सुह दुक्खसमण्णिए ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - ईसरेण - ईश्वर ने, कडे - कृत किया, पहाणाइ - प्रधानादि कृत, जीवाजीवसमाउत्ते - जीव और अजीव से समायुक्त, सुहदुक्खसमण्णिए - सुख और दुःख से समन्वित। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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