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अध्ययन १४
भावार्थ - प्रश्न का उत्तर देता हुआ साधु शास्त्र के अर्थ को न छिपावे तथा अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्र की व्याख्या न करे एवं मैं बड़ा विद्वान् तथा बड़ा तपस्वी हूँ ऐसा अभिमान न करे तथा अपने गुण का प्रकाश भी न करे । किसी कारणवश श्रोता यदि पदार्थ को न समझे तो उसकी हँसी न करे तथा साधु किसी को आशीर्वाद न दे ।
विवेचन - प्रश्न का उत्तर देने वाला साधु चाहे चार ज्ञान चौदह पूर्वं धारी हो तो भी छद्मस्थ है। इसलिए अपने ज्ञान का गर्व न करें एवं शास्त्र के अनुसार सोच विचार कर उत्तर दे। यदि श्रोता प्रश्न के उत्तर को न समझ सके तो उसकी हंसी न करें तथा
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" आशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो (बहुधर्मो ) दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यादि न व्यागृणीयात् भाषा समितियुक्तेन भाण्यमिति ॥ "
अर्थात् - तुम पुत्रवान्, धनवान्, धर्मवान् और दीर्घायु हो इत्यादि आशीर्वाद का वाक्य भी किसी कोन कहे किन्तु भाषा समिति का पालन करे ।
इस गाथा की टीका करते हुए नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि कहते हैं कि मुनि किसी को दुराशीष अथवा शुभाशीष नं दे यहाँ तक की तुम धर्मवान् हो ऐसा भी न कहे तो फिर 'धर्मलाभ' कहना तो कहां तक उचित है। क्योंकि इसमें तो खुद का स्वार्थ है वह श्रावक को कहता है कि तुम मुझे वंदना करो आहारादि बहराआं तो तुमको धर्म का लाभ होगा। यह तो एक तरह से सौदेबाजी हो जाती है।
प्रश्न - वंदन करने वाले को यदि धर्मलाभ न कहा जाए तो क्या कहा जाए क्योंकि स्थानकवासी मुनिराज 'दया पालो' कहते हैं । मूर्तिपूजक बंधु पूछते हैं कि दया पालो का क्या अर्थ है ? "दया पालो" कहना तो उपदेश रूप है। श्रावक पौषध में भी मुनिराज को वंदन करता है तब भी मुनिराज दया पालो ही कहते हैं। पौषध में तो दया का पालन होता ही है तो फिर 'दया पालो' कहने का क्या अर्थ है?
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उत्तर
जब कोई मुनिराज को वंदना करता है तो उसकी वंदना को स्वीकार करने रूप कुछ उत्तर तो देना ही चाहिए। इसीलिए उसकी वंदना को स्वीकार करने रूप 'दया पालो' कहना उचित ही है और उसका उपदेशात्मक अर्थ भी ठीक है। व्यावहारिक दृष्टि से वंदनकर्त्ता को ( ध्यान मौन आदि के सिवाय) प्रत्युत्तर देने के लिए किसी न किसी शब्द का प्रयोग करना उचित लगता है । दया (अहिंसा) व्रत सभी व्रतों का मूल है, गौण रूप से सभी व्रतों का समावेश इसी में हो जाता है । सब महाव्रतों में सर्वप्रथम स्थान इसी का है। अतः स्थानकवासी मुनिराज वंदन कर्त्ता को शुद्ध प्रवृत्ति में प्रेरित करने के लिए 'दया पालो' शब्द का प्रयोग करते हैं । अर्थात् वंदन करना तो वंदन है, परन्तु आत्मा का पूर्ण कल्याण करने हेतु शुद्ध प्रवृत्ति करना आवश्यक है। अतः शुद्ध प्रवृत्ति की तरह ध्यान आकर्षित करने के लिए सदैव 'दया पालो' शब्द का उपयोग करना उचित लगता है।
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