SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "ज्ञान क्रियाभ्यामं मोक्षः" अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों के सम्मिलित रूप से मोक्ष (मुक्ति) होता है। इस बात को उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा था यही बात इस गाथा में कही है यथा - वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे और उन्होंने निर्दोष चारित्र का पालन किया था। 'सव्वजगंसि अणुत्तरे' सर्वजगत्सु अनुत्तरः विद्वान् समस्त जगत् में भगवान् से बढ़कर कोई विद्वान् नहीं था। वे हस्तामलकवत् समस्त पदार्थों को जानने वाले थे। . प्रश्न - हस्तामलकवत् शब्द का क्या अर्थ है ? उत्तर - हस्तामलकवत् शब्द के दो अर्थ हैं यथा - हस्त+आमलक+वत्- हाथ में रखे हुए आंवले की तरह । दूसरा अर्थहस्त+अमल+क+वत्= . अर्थ - हथेली में रखे हुए निर्मल जल के समान। यहाँ पर अमल का अर्थ है मल रहित-निर्मल। 'क' का अर्थ है पानी-जल। हथेली में रखे हुए निर्मल जल का ऊपरी भाग और नीचे की सतह साफ दिखाई देती है इसी तरह केवलज्ञान में सब पदार्थों का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सात भय से रहित थे। अतः अभय थे। .. . गंथा अतीते - ग्रंथात अतीतय=बाह्य और आभ्यन्तर एवं सचित्त अचित्त मिश्र सभी प्रकार के ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित थे। . अणाऊ-अनायु - पूर्वभव में बान्धे हुए मनुष्य भव का आयुष्य तो भोग रहे थे किन्तु अब नरक आदि चारों गतियों में से किसी भी गति का आयुष्य नहीं बांधेगे। इस अपेक्षा से भगवान् अनायु (आयु रहित) थे। से भूइपण्णे अणिएअचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तप्पइ सूरिए वा, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - भूइपण्णे - भूतिप्रज्ञ-अनन्तज्ञानी, अणिए अचारी - अनियताचारी-इच्छानुसार विचरण करने वाले, अथवा अनिकेतचारी-गृहत्याग कर विचरण करने वाले, ओहंतरे - संसार सागर के पारगामी, अणंतचक्खु - अनन्त चक्षु वाले-केवलज्ञानी, सूरिए - सूर्य, वइरोयणिंदे - वैरोचनेन्द्र-प्रज्वलित अग्नि, तमं - अंधकार को, पगासे - प्रकाशित करने वाले । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी अनन्तज्ञानी, इच्छानुसार अर्थात् प्रतिबन्ध रहित विचरने वाले, संसार सागर को पार करने वाले, परीषह और उपसर्गों को सहन करने वाले, केवलज्ञानी थे । जैसे सबसे ज्यादा सूर्य तपता है इसी तरह भगवान् सबसे ज्यादा ज्ञानवान् थे । जैसे अग्नि अन्धकार को दूर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy