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समस्त जगत् में सर्वोत्तम विद्वान् और बाह्य तथा आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित निर्भय एवं आयु रहित (जन्म
मरण के चक्र से मुक्त ) थे । विवेचन
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'णाणस्स फलं विरइ" अर्थात् ज्ञान का फल विरति - वैराग्य है । जिसके हृदय में उत्कृष्ट वैराग्य का आगमन होता है उसकी प्रवृत्ति चारित्र में हुए बिना नहीं रहती और जो उत्कृष्ट चारित्र वाला होता है वह बन्धनों से मुक्त होकर, निर्भय और अनायु हो जाता है । अतः सच्चा विद्वान् वही है जो बंधन से रहित - निर्भय है और जो भवपरम्परा का विच्छेद कर देता है । जन्म मरण के चक्रवाल से मुक्त हो जाता है ।
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अध्ययन ६
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्य और विशेष धर्म को . जानते थे। इसीलिये वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाते थे । वे "अभिभूयणाणी" थे।
अभिभूयनाणी - अभिभूयज्ञानी शब्द का अर्थ है मति आदि चार ज्ञानों का अभिभव (पराभव - पराजय) करके केवल ज्ञानी बने हुए। इसका आशय यह है कि जब केवलज्ञान होता है तब मतिज्ञान आदि चार ज्ञान अभिभूत अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। जैसा कि कहा है “णट्ठम्मिए छाउमत्थिए णाणे'' - मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। ये च ज्ञान हो जाने पर भी जीव छद्ममस्थ ही रहता है। इसीलिये इन चार ज्ञानों को छाद्मस्थिक ज्ञान ही कहते हैं। केवल ज्ञान क्षायिक ज्ञान है । इसलिये केवलज्ञान हो जाने पर ये चार ज्ञान नहीं रहते हैं। कितनेक लोगों की मान्यता है कि इन चार ज्ञानों का केवलज्ञान में समावेश हो जाता है । किन्तु यह कहना आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक है और ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। क्षायिक भाव में क्षायोपशमिक भाव का समावेश नहीं होता है। क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान में कुछ ज्ञान का अंश उपशम अर्थात् दबा रहता है। किन्तु केवलज्ञान रूप क्षायिक भाव में कुछ भी अंश दबा नहीं रहता किन्तु आवरण का सर्वथा क्षय हो जाता है।
. णिरामगंधे - निर्गतः - अपगत आमः अविशोधिकोव्याख्यः तथा गन्धो-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवान इत्यर्थः ।
शास्त्र की परिभाषा में 'आमः' का अर्थ है अविशोधिकोटि नामक मूल गुण और 'गन्ध' का अर्थ है विशोधिकोटि रूप उत्तर गुण रूप । मूल गुण और उत्तर गुण रूप दोषों से रहित चारित्र का पालन किया था 'धिइमं' - धृतिमान् असह्य परीषह और उपसर्गों के आने पर भी कम्प रहित होकर चारित्र में दृढ़ थे और आत्म स्वरूप में स्थित थे।
कुछ लोगों की मान्यता है कि सिर्फ ज्ञान से ही मुक्ति हो जाती है और कुछ की मान्यता है कि क्रिया से ही मुक्ति हो जाती है। किन्तु भगवान् महावीर स्वामी का सिद्धान्त है कि
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