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________________ अध्ययन २ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000००००००००० गर्व बढ़ा जो ज्ञान से, तप से क्रोध विशेष। आचार से अभिमान बढ़ा, व्यर्थ लजाया वेष ॥ जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसए सिया। जे मोणपयं उवट्ठिए, णो लज्जे समयं सया चरे ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - अणायगे - अनायक-नायक रहित, पेसगपेसए - दास का भी दास, मोणपयं - मौन पद-संयम मार्ग में, समयं - समभाव से । भावार्थ - जो स्वयंप्रभु चक्रवर्ती आदि हैं तथा जो दास के भी दास हैं उन्हें संयम मार्ग में आकर लज्जा छोड़कर समभाव से व्यवहार करना चाहिए। . विवेचन - चाहे चक्रवर्ती भी क्यों न हो परन्तु संयम लेने के पश्चात् अपने गृहस्थावस्था के पूर्व दीक्षित दास को भी वंदन नमस्कार करने में लज्जा नहीं करनी चाहिये तथा दूसरे किसी से भी मान नहीं करते हुए समभाव का आश्रय लेकर संयम में तत्पर रहना चाहिये । आशय यह है कि - चक्रवर्ती के दास ने अथवा उस दास के भी दास ने पहले दीक्षा ले ली और चक्रवर्ती ने उसके बाद दीक्षा ली तो जैन सिद्धान्त के अनुसार वह दास मुनि बड़ा गिना जाता है और पीछे से दीक्षित चक्रवर्ती मुनि छोटा मुनि गिना जाता है। अतः चारित्र की अपेक्षा छोटा मुनि बड़े मुनि को वन्दन करता है यह आगमिक नियम है। अत: चक्रवर्ती मुनि अपने से पूर्व दीक्षित दास मुनि को वन्दन करने में लज्जित नहीं होना चाहिये। जरा-सा भी संकोच नहीं करना चाहिये तथा पूर्व चक्रवर्ती पद का मद भी नहीं करना चाहिये। क्योंकि मुनिपद चक्रवर्ती पद से भी ऊंचा पद है। दीक्षा लेने के बाद गृहस्थावस्था का पद (सेठ और मुनीम, राजा और नौकर) नहीं गिना जाता है फिर तो सबके लिये एक ही पद है। वह है मुनिपद। संसार के समस्त पदों से मुनि पद ऊंचा होता है। यहां तक कि:- अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय पद भी मुनि पद आने के बाद ही प्राप्त होते हैं। अतः मुनिपद सर्वोत्कृष्ट पद है। डॉक्टर, वकील, बैरिस्टर, पी. एच. डी, डीलिट आदि पद तो मुनि पद के सामने कुछ भी महत्त्व नहीं रखते हैं। मुनिपद के सामने ये सब डिग्रियाँ हलकी हो जाती है। अपने नाम के पीछे ऐसी डिग्रियाँ जोड़ना, मुनिपद का अवमूल्यन है। समे अण्णयरंमि संजमे, संसुद्धे समणे परिव्वए । जे आवकहा समाहिए, दविए कालमकासी पंडिए॥४॥ कठिन शब्दार्थ - संसुद्धे - सम्यक् प्रकार से शुद्ध, परिव्वए- प्रव्रज्या का पालन करे, आवकहा - यावत् कथा-जीवन पर्यन्त, समाहिए - समाधिवंत-शुभ अध्यवसाय वाला, कालमकासी - मरण पर्यन्त । भावार्थ - सम्यक् प्रकार से शुद्ध, शुभ अध्यवसाय वाला, मुक्तिगमनयोग्य, सत् और असत् के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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