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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेक में कुशल तपस्वी साधु, मरण पर्यन्त किसी एक संयम स्थान में स्थित होकर समभाव के साथ प्रव्रज्या का पालन करे । .
दूरं अणुपस्सिया मुणी, तीयं धम्ममणागयं तहा । पुढे फरुसेहिं माहणे, अवि हण्णू समयंमि रीयइ ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - अणुपस्सिया - देख कर, तीयं - अतीत, अणागयं - अनागत, फरुसेहिं - परुष - कठोर वचन या लाठी आदि के द्वारा, हण्णू - हनन किया जाता हुआ, समयंमि - संयम में ही, रीयइ - चले ।
भावार्थ - तीन काल को जानने वाला मुनि, भूत तथा भविष्यत् प्राणियों के धर्म को तथा मोक्ष को देख कर कठिन वाक्य अथवा लाठी, डण्डा आदि के द्वारा स्पर्श प्राप्त करता हुआ अथवा मारा जाता हुआ भी संयम मार्ग से ही चलता रहे ।
विवेचन - यह जीव भूतकाल में ऊंची नीची गतियों में गया और भविष्यत् काल में भी जायेगा ऐसा सोच कर मुनि जाति कुल आदि का किसी प्रकार का मद न करे तथा आक्रोश परीषह को समभाव पूर्वक सहन करे। यहां 'समया अहियासए' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। इसका भी यही अर्थ है। .
पण्णसमत्ते सया जए, समया धम्ममुदाहरे मुणी ।
सुहमे उ सया अलूसए, णो कुण्झे णो माणी माहणे ॥६॥ . . . कठिन शब्दार्थ- पण्णसमत्ते ( पण्हसमत्थे)- प्रज्ञासम्मत्त-पूर्ण बुद्धिमान, समयाधम्म - समता रूप धर्म को, उदाहरे - उपदेश करे, अलूसए - अविराधक होकर रहे, णो कुझे - क्रोध न करे, णो माणी - मान न करे ।
भावार्थ:- बुद्धिमान् मुनि सदा कषायों को जीते एवं समभाव से अहिंसा धर्म का उपदेश करे । संयम की विराधना कभी न करे, एवं क्रोध तथा मान को छोड़ देवे ।।
विवेचन - गाथा में आये हुए ‘पण्णसमत्ते' का अर्थ प्रज्ञा समाप्त अर्थात पूर्ण बुद्धिमान् । पाठान्तर 'पण्हसमत्थे' जिसका अर्थ है प्रश्न समर्थ अर्थात् पूछे हुए प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ। ऐसे मुनि भी ज्ञान का मद न करे। संयमानुष्ठान का सावधानी पूर्वक पालन करे। उसे कोई मारे-पीटें तो क्रोध न करे तथा कोई पूजा प्रशंसा करे तो गर्व न करे।
बहु जण णमणमि संवुडो, सव्वद्वेहिं णरे अणिस्सिए। 'हदए व सया अणाविले, धम्मं पादुरकासी कासवं ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - णमणमि - नमस्कार करने योग्य, अणिस्सिए - अनिश्रित-ममता को हटा कर, हदए (हरए) - तालाब, अणाविले - अनाविल-निर्मल रहता हुआ, पादुरकासी - प्रकट करे ।
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