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________________ ६४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - जैसे सर्प अपनी त्वचा को छोड़ देता है इसी तरह साधु अपने आठ प्रकार के कर्म रज को छोड़ देते हैं । यह जानकर संयमधारी मुनि अपने कुल आदि का मद नहीं करते हैं, तथा वे दूसरे की निन्दा भी नहीं करते हैं क्योंकि दूसरे की निन्दा कल्याण का नाश करती है । विवेचन - सर्प जब वृद्ध होने लगता है तब उसके शरीर पर पतली सी झिल्ली (चमड़ी) आने लगती है । उससे नजर भी मन्द पड़ जाती है । पक जाने पर सांप उस झिल्ली को छोड़ देता है, छोड़ कर भाग जाता है । इसी प्रकार साधु को जाति कुल आदि का अभिमान और आठ कर्मों को छोड़ देना : चाहिये तथा दूसरों की निन्दा भी नहीं करनी चाहिये । निंदा अपनी आत्मा के लिए अहितकारी है। जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तइ महं । अदु इंखिणिया उ पाविया, इइ संखाय मुणी ण मग्जइ ॥२॥... कठिन शब्दार्थ - परिभवइ - परिभव-तिरस्कार करता है, परिवत्तइ- भ्रमण करता है, महं - महत्-चिर काल तक, पाविया- पाप का कारण। भावार्थ - जो पुरुष दूसरे का तिरस्कार करता है वह चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । पर निन्दा पाप का कारण है यह जानकर मुनिराज किसी की भी निंदा नहीं करते और अपने ज्ञानादि का किसी प्रकार से मद नहीं करते हैं । विवेचन - परनिंदा पाप को उत्पन्न करती है। इस विषय में इस लोक में सूअर का दृष्टान्त है और परलोक में निन्दा करने वाला पुरोहित (ब्राह्मण) भी कुत्ते की योनि में उत्पन्न हो जाता है। परनिंदा पाप का कारण है यह जान कर मुनि को पर निन्दा नहीं करनी चाहिये कि -'मैं विशिष्ट कुल में उत्पन्न हुआ हूँ अतः कुलवान् हूं, रूपवान् हूं, शास्त्रज्ञ हूं और तपस्वी हूं। दूसरे मेरे से हीन हैं। इसको अजीर्ण कहते हैं। जैसा कि कहा है अजीर्णं तपसः क्रोधः, ज्ञानाजीर्ण महंकृतिः परतप्तिः क्रियाजीर्णं, अन्नाजीर्ण विषूचिका ॥ अर्थ - इस श्लोक में चार अजीर्ण बतलाये गये हैं। उनमें तीन भाव अजीर्ण हैं और एक द्रव्य अजीर्ण है। तपस्या करने से यदि क्रोध कषाय की वृद्धि होती है तो यह तप का अजीर्ण है। ज्ञान बढ़ने से यदि अहंकार (अभिमान) की वृद्धि होती है तो यह ज्ञान का अजीर्ण है। क्रिया का पालन करने से अपने आप को उच्च क्रिया पात्र समझता है दूसरों को हीनाचारी शिथिलाचारी समझता है तो यह क्रिया का अजीर्ण है। अधिक आहार कर लेने से यदि विषूचिका (दस्ते)लगने लगे तो आहार का अजीर्ण है। इस द्रव्य अजीर्ण की तो औषध सरल है परन्तु तीन भाव अजीर्ण की औषध तो बड़ी कठिन है। इसकी औषध वैद्य के पास नहीं है अपितु स्वयं के पास है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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