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अध्ययन १ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मानते हैं। इनका कथन है कि "अज्ञान मेव श्रेयो यथा यथा च ज्ञानातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेकः इति" ज्यों ज्यों ज्ञान बढता जाता है त्यों त्यों दोष भी बढ़ता जाता है। जैसे कि कोई पुरुष जानबूझ कर दूसरों के सिर को पैर से स्पर्श करता है तो उसका अपराध महान् होता है और जो भूल से दूसरे के सिर का पैर से स्पर्श हो जाता है तो उसका अपराध कुछ भी नहीं माना जाता है इसलिये अज्ञान ही श्रेष्ठ है ऐसा अज्ञानवादी का मत है।
अण्णाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण णियच्छइ ।
अप्पणो य परं णालं, कुओ अण्णाणुसासिउं ॥१७॥ - कठिन शब्दार्थ - अण्णाणियाणं - अज्ञानवादियों का, वीमंसा - विमर्श-पर्यालोचनात्मक विचार, ण - नहीं, अलं - समर्थ है, अणुसासिउं - शिक्षा देने में ।
भावार्थ - "अज्ञान ही श्रेष्ठ हैं" यह पर्सालोचनात्मक विचार अज्ञान पक्ष में संगत नहीं हो . सकता है । अज्ञानवादी अपने को भी शिक्षा देने में समर्थ नहीं हैं फिर वे दूसरे को शिक्षा कैसे दे सकते
. विवेचन - ज्ञान से ही व्यक्ति स्वयं शिक्षित बनता है और ज्ञान से ही दूसरों को शिक्षा दी जा सकती हैं। अज्ञानी तो स्वयं अंधेरे में है। जो स्वयं अंधेरे में है वह दूसरों को उजाले में कैसे ला सकते हैं ?
वणे मूढे जहा जंत, मूढे णेयाणुगामिए । दो वि एए अकोविया, तिव्वं सोयं णियच्छइ ॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - णेयाणुगामिए - नेता के पीछे चलने वाला है, तिव्वं - तीव्र, सोयं - शोक को, णियच्छइ - प्राप्त करता है।
भावार्थ - जैसे वन में.दिशामूढ़ प्राणी दूसरे दिशामूढ़ प्राणी के पीछे चलता है तो वे दोनों ही मार्ग न जानने के कारण तीव्र दुःख को प्राप्त करते हैं ।
अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणुगच्छइ । .... आवजे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥ १९॥ .. कठिन शब्दार्थ - अंधं - अंधे मनुष्य को, पहं - मार्ग में, णितो - ले जाता हुआ, दूरं - दूर तक, अद्धा - मार्ग में, आवजे - प्राप्त करता है, उप्पहं - उत्पथ को, पंथाणुगामिए - पंथानुगामिक-मार्ग में चलने वाला।
भावार्थ - जैसे स्वयं अन्धा मनुष्य, मार्ग में दूसरे अन्धे को ले जाता हुआ जहां जाना है वहां से दूर स्थान पर चला जाता है अथवा उत्पथ को प्राप्त करता है अथवा अन्यमार्ग में चला जाता है।
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