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________________ २८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जे एयं णाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, घायमेस्संति णंतसो ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, अभिजाणंति - नहीं जानते हैं, घायं - घात को, एसंति - प्राप्त करेंगे, णंतसो - अनन्तबार । - भावार्थ - जो मिथ्यादृष्टि अनार्य पुरुष इस अर्थ को नहीं जानते हैं वे पासबद्ध मृग की तरह अनन्तबार घात को प्राप्त करेंगे। माहणा समणा एगे, सव्वे णाणं सयं वए । सव्वलोगेऽवि जे पाणा, ण ते जाणंति किंचणं ।।१४ ॥ भावार्थ - कोई ब्राह्मण और श्रमण ये सभी अपना अपना ज्ञान बताते हैं परन्तु सब लोक में जितने प्राणी हैं उनके विषय में भी वे कुछ नहीं जानते हैं तो फिर दूसरे तत्त्वों को तो जानेंगे ही कैसे? . मिलक्खू अमिलक्खूस्स, जहा वुत्ताणुभासए । ण हेउं स विजाणाइ, भासिअंतऽणुभासए ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - मिलक्खू - म्लेच्छ, अमिलक्खूस्स - अम्लेच्छ-आर्यपुरुष के, वुत्तं - कथन का, अणुभासए - अनुवाद करता है। भावार्थ - जैसे म्लेच्छ पुरुष, आर्यपुरुष के कथन का अनुवाद करता है । वह उस भाषण का निमित्त नहीं जानता है किन्तु भाषण का अनुवाद मात्र करता है । एवमण्णाणिया णाणं, वयंता वि सयं सयं । णिच्छयत्थं ण याणंति, मिलक्खूब्ध अबोहिया ॥ १६ ॥ . कठिन शब्दार्थ - एवमण्णाणिया - इस तरह ज्ञान हीन , णिच्छयत्थं - निश्चित अर्थ को, याणंति (जाणंति)- जानते हैं, अबोहिया - अबोधिक - ज्ञान रहित । . . भावार्थ - इसी तरह ज्ञानवर्जित ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान को कहते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते हैं किन्तु आर्य भाषा का अनुवाद मात्र करने वाला अर्थ ज्ञानहीन पूर्वोक्त म्लेच्छ की तरह बोधरहित हैं। विवेचन - अपने आप को ज्ञानी मानने वाले भी वे वास्तव में ज्ञानी नहीं किन्तु अज्ञानी हैं क्योंकि उन में परस्पर मत भेद है । उनका कथन है सब ओर अज्ञान का ही राज्य है । अतः अज्ञान ही श्रेष्ठ है । यह अज्ञान वादी का कथन है । सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थङ्कर भगवान् द्वारा कथित अर्थ के आशय को न समझ कर अज्ञान को ही श्रेष्ठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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