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अध्ययन १ उद्देशक २..
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भावार्थ - इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि अनार्य कोई श्रमण शंका रहित अनुष्ठानों में शंका करते हैं और शंका योग्य अनुष्ठानों में शंका नहीं करते हैं ।
धम्म पण्णवणा जा सा, तं तु संकंति मूढगा । आरंभाइं ण संकंति, अवियत्ता अकोविया ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - धम्म पण्णवणा - धर्म की प्रज्ञापना, आरंभाइं - आरंभ में, मूढगा - मूर्ख, अवियत्ता - अविवेकी, अकोविया - अकोविद । .
भावार्थ - मूर्ख, अविवेकी और शास्त्रज्ञान वर्जित वे अन्यतीर्थी, धर्म की जो प्ररूपणा है उसमें शंका करते हैं और आरम्भ में शंका नहीं करते हैं । . विवेचन - मृग शब्द के दो अर्थ हैं हरिण और अज्ञानी। गाथा ६ से लेकर ११ तक में एक दृष्टान्त दिया गया है कि - शिकारी लोग खेत के ३ तरफ अड़वा (सीधी लकड़ी खड़ी करके सिर पर काली हंडी रख देते हैं तथा दोनों तरफ कुरते की तरह पहना देते हैं जिससे वह पुरुष की तरह मालूम होता है।) खड़ा कर देते हैं और चौथी तरफ जाल बिछा देते हैं और आप स्वयं छिप कर बैठ जाते हैं। हरिण खेत में धान खाने के लिये आते हैं तब तीन तरफ उन अड़वों को पुरुष समझ कर उधर नहीं जाते हैं। चौथी तरफ जाते हैं तो वहाँ जाल में फंस जाते हैं और शिकारी लोग उन्हें पकड कर मार डालते हैं। तीन तरफ तो अड़वा खड़े हैं इसलिये वहाँ तो कोई भय नहीं है किन्तु हरिण उधर शंका का स्थान समझ कर उधर नहीं जाते। चौथी तरफ जाल है उधर शङ्का का स्थान है उसे शङ्का का स्थान नहीं समझ कर निःशंक होकर उधर जाते हैं तो जाल में फंस कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी तरह हरिण के समान अज्ञानी अन्य मतावलम्बी वीतराग धर्म को स्वीकार नहीं करते किन्तु आरम्भ परिग्रह में फंसते जाते हैं अतएव वे बारम्बार जन्म मरण के चक्कर में फंसते जाते हैं अतएव मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
सव्वप्पगं विउक्कस्सं, सव्व मं विहूणिया । अपत्तियं अकम्मंसे, एयमढें मिगे चुए ॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - सव्वप्पगं - सर्वात्मक-लोभ, विउक्कस्सं - विविध प्रकार का उत्कर्ष, णूमं - माया, विहूणिया - त्याग कर, अप्पत्तियं - क्रोध को, अकम्मंसे - कांश रहित, चुए - त्याग देता है।
भावार्थ - लोभ, मान, माया और क्रोध को छोड़कर जीव कर्मांश रहित होता है परन्तु मृग के समान अज्ञानी जीव, इस वीतराग कथित सिद्धान्त को छोड़ देता है।
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