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________________ १९८ *********......0000 तम्हा ते ण सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा ॥ ६३ ॥ अर्थ - रोगी हो अथवा नीरोगी हो किन्तु जो साधु स्नान करने की इच्छा करता है, निश्चय ही वह आचार से भ्रष्ट हो जाता है और उसका संयम मलिन हो जाता है। इसलिये शुद्ध संयम का पालन करने वाले साधु साध्वी ठण्डे जल से अथवा गरम जल से कभी भी स्नान नहीं करते हैं । किन्तु जीवन पर्यन्त अस्नान नामक कठिन व्रत का पालन करते हैं। - अतः स्नान करने से मोक्ष प्राप्ति की मान्यता रखने वाला मत आगम विरुद्ध है । मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उट्टा दगरक्खसा य । अट्ठाण - मेयं कुसला वयंति, उदगेण जे सिद्धि - मुदाहरति ।। १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - मच्छा मछली, कुम्मा कूर्म (कच्छप) सिरीसिवा सरीसृप, मग्गू - बतख, उट्टा - ऊंट नामक जल चर, दगरक्खसा - जल राक्षस, अट्ठाणं अयुक्त, एवं यह, कुसला कुशल पुरुष । - भावार्थ - यदि जलस्पर्श से मुक्ति की प्राप्ति हो, तो मच्छली, कच्छप, सरीसृप तथा जल में रहनेवाले दूसरे जलचर सबसे पहले मोक्ष प्राप्त कर लेते परन्तु ऐसा नहीं होता इसलिये जो जलस्पर्श से मोक्ष बताते हैं उनका कथन अयुक्त है ऐसा मोक्ष का तत्त्व जानने वाले पुरुष कहते हैं । विवेचन - जल से स्नान करने से मुक्ति मिलती हो तो, सदा जल में रहने वाले जलचर जीवों की सबसे पहले मुक्ति हो जाती, इत्यादि बातें पहली गाथाओं में कही गयी है । अत: स्नान से मुक्ति मान्यता रखने वाला मत मिथ्या है । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000 - - - Jain Education International उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा, एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंध व यार - मणुस्सरत्ता, पाणाणि चेवं विहिंति मंदा ।। १६ ।। कठिन शब्दार्थ - कम्ममलं कर्म मल को, हरेज्जा हरे, इच्छामित्तं - इच्छा मात्र, एव ही, अंधं - अंधे, णेयारं नेता के, अणुस्सरित्ता अनुसरण -पीछे चल कर, विणिहंति हिंसा करते हैं, मंदा मंदमति । भावार्थ - जल यदि पाप को हरे तो वह पुण्य को भी क्यों नहीं हर लेगा अतः जलस्पर्श से मोक्ष मानना मनोरथ मात्र है । वस्तुतः अज्ञानी जीव, अज्ञानी नेता के पीछे चलते हुए जलस्नान आदि के द्वारा प्राणियों का घात करते हैं । 00000000000000 - - For Personal & Private Use Only विवेचन - जैसे जन्मान्ध पुरुष दूसरे जन्मान्ध पुरुष के पीछे चलता हुआ वह कुमार्ग में चला जाता है किन्तु अपने इष्ट स्थान पर नहीं पहुंचता है । इसी तरह जल स्नान से मुक्ति प्राप्ति की मान्यता - www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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