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अध्ययन ७ .
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उदगेण जे सिद्धि-मुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसंता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि, सिझिंसु पाणा बहवे दगंसि ॥ १४॥
कठिन शब्दार्थ - उदगेण-उदग- जल से, सिद्धिं - सिद्धि, उदाहरंति - बतलाते हैं, सायं - सायंकाल, पायं - प्रात:काल, उदगं - जल का, फुसंता - स्पर्श करते हुए, सिया - यदि (कदाचित्), उदगस्स फासेण - जल स्पर्श (स्नान) से, दगंसि- जल में रहने वाले, बहवे - बहुत से, पाणा - प्राणी, सिझिंसु - सिद्ध हो गये होते ।
भावार्थ - सायंकाल और प्रात:काल जलस्पर्श करते हुए जो लोग जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं वे झूठे हैं । यदि जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति हो, तो जल में रहने वाले जानवरों को भी मोक्ष मिल जाना चाहिये ।
विवेचन - प्रात:काल सायंकाल और मध्यान्हकाल इन तीन संध्याओं में जल से स्नान करने से मुक्ति मिलती है, ऐसी मान्यता वालों का कथन युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि फिर तो निरन्तर जल में रहने वाले मत्स्य कच्छप आदि जलचर जीवों की मुक्ति हो जाती तथा पहले जो यह युक्ति दी गयी कि पानी बाहर के मैल को धोता है । यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जल, शरीर पर लगे हुए अङ्गराग, कुंकुम, चन्दन आदि को भी धो डालता है । अतः जल के द्वारा पाप की तरह पुण्य भी धुल जायेगा । यह इष्ट नहीं है क्योंकि इससे तो जीव की उन्नति ही रुक जायेगी। मोक्षार्थी, संयमी (ब्रह्मचारी) के लिये स्नान करना सर्वथा वर्जित है जैसा कि कहा है - "स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्गप्रथमं स्मृतम् ।
.. तस्मात्कामं परित्यज्य, न ते स्नान्ति दमे रताः ।।
अर्थ- स्नान, मद और दर्प उत्पन्न करता है । वह कामवासना जागृत करने का प्रधान कारण है । इसलिये जो पुरुष इन्द्रियों को दमन करने वाले हैं वे काम का त्याग करके स्नान नहीं करते हैं । तथा - - नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः स बाहयाभ्यन्तरः शुचिः ॥
जल से भीगा हुआ शरीर वाला पुरुष स्नान किया हुआ नहीं कहा जाता है। किन्तु जो पुरुष व्रतों से स्नान किया हुआ है अर्थात् व्रतधारी है वह स्नान किया हुआ कहा जाता है क्योंकि वह पुरुष बाहर और भीतर दोनों ही प्रकार से शुद्ध है । दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में कहा है -
वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । वुक्कंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ।।६१ ॥
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