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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
... कठिन शब्दार्थ - विउद्विते - शास्त्र विरुद्ध कार्य करने वाले के द्वारा, समगाणुसिटे - समयानुशिष्ट-समय के अनुसार शिक्षा दिया हुआ, अच्चुट्टियाए - निन्दित, पतित, घडदासिए - घट दासी के द्वारा, अगारिणं - गृहस्थ के द्वारा ।
भावार्थ - शास्त्र विरुद्ध कार्य करने वाला गृहस्थ, परतीर्थी आदि तथा अवस्था में छोटे या बड़े एवं अत्यन्त निन्दित घटदासी यदि साधु को शुभ आचरण करने की शिक्षा दे तो साधु को क्रोध न करना चाहिये। ...
विवेचन - साधुता के विरुद्ध आचरण करते हुए मुनि को यदि कोई सत् शिक्षा दे और यहाँ तक कि पानी भरने वाली दासी भी साधु को हित शिक्षा दे तो मुनि उस पर क्रोध न करे एवं मन में थोड़ा भी दुःख न माने किन्तु ऐसा समझे कि यह हित शिक्षा मेरे आत्म-कल्याण के लिए है।। ८ ॥
ण तेसु कुण्झे ण य पव्वहेज्जा, ण यावि किंचि फरुसं वयएंग्जा । तहा करिस्संति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमायं कुज्जा ॥ ९ ॥
कठिन शब्दार्थ - कुझे - क्रोध करे, पव्वहेज्जा - पीड़ित करे, फरुसं - कठोर, वयएज्जा - बोले, पडिस्सुणेजा - प्रतिज्ञा करता हुआ, सेयं - श्रेय-कल्याणकारी, पमायं - प्रमाद ।
भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से शिक्षा दिया हुआ साधु शिक्षा देने वालों पर क्रोध न करे तथा उन्हें पीड़ित न करे एवं कटु वचन न कहे किन्तु "अब मैं ऐसा ही करूँगा" ऐसी प्रतिज्ञा करता हुआ साधु प्रमाद न करे ।
विवेचन - साधु से संयम पालन में भूल हो जाने पर अपने पक्ष वाले यदि उसकी भूल बतावें अथवा दुर्वचन कहें तो भी साधु क्रोध न करे किन्तु यह विचार करें - ..
'आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिःकार्या। यदि सत्यं कः कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥
अर्थात् - किसी के द्वारा आक्रोश वचन एवं निंदा को सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सत्य बात के अन्वेषण में अपनी बुद्धि लगावे और यह विचार करे कि यदि यह निंदा सच्ची है तो फिर मुझे क्रोध क्यों करना चाहिए और यदि मिथ्या है तो भी क्रोध करने की क्या आवश्यकता है ?
ऐसा विचार करके उसे कटु वचन न कहे और सन्तप्त भी न करे किन्तु पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित शुद्ध संयम का पालन करे ॥९॥
वणंसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तेणेव मण्झं इणमेव सेयं, जं मे बुद्धा समणुसासयंति ।।१०॥
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