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________________ अध्ययन १४ दूसरें मुनियों के आचरण को देखकर वह स्वयं समिति गुप्ति युक्त उत्तम आचरण वाला मुनि बन जाता है फिर वह दूसरे मुनियों के लिए अनुकरणीय बन जाता है एवं उसके उपदेश का भी दूसरों पर असर पड़ता है। सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वज्जा । हिं च भिक्खू ण पमाय कुज्जा, कहं कहं वा वितिगिच्छ-तिण्णे ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दाणि - शब्दों को, भेरवाणि भयंकर (कठोर) अणासवे- अनास्रव - राग द्वेष रहित होकर, परिव्वज्जा - विचरे, वितिगिच्छ - विचिकित्सा संशय को, तिण्णे तिर जाय । भावार्थ - ईर्य्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयङ्कर शब्दों को सुनकर राग द्वेष न करे तथा वह निद्रारूप प्रमाद न करे और किसी विषय में भ्रम होने पर गुरु से पूछ कर उससे पार हो जाय । - विवेचन – मुनि को चाहिए कि अनुकूल या प्रतिकूल शब्द कान में पड़े तो उनमें राग द्वेष न करता हुआ मध्यस्थ वृत्ति धारण करके तथा निद्रा, विकथा आदि पांच प्रमादों का निवारण करके सावधानी पूर्वक संयम का पालन करे । : डहरेण वुड्डेणऽणुसासिए उ, राइणएणावि समव्वएणं । सम्मंतयं थिरओ णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से ॥ ७ ॥ २९७ Jain Education International - कठिन शब्दार्थ - डहरेण - छोटे के द्वारा, वुड्डेण - वृद्ध के द्वारा, अणुसासिए - अनुशासित होने पर - शिक्षा दिया हुआ, राइणिएण - रत्नाधिकों के द्वारा, समव्वएणं समवयस्क - सहदीक्षित के द्वारा, णाभिगच्छे स्वीकार न करता हुआ, णिज्जंतए - संसार के पार ले जाया जाता हुआ, अपारए - पार नहीं पा सकता। भावार्थ - कभी प्रमादवश भूल होने पर अपने से बड़े छोटे अथवा प्रव्रज्या में बड़े या समान. अवस्था वाले साधु के द्वारा भूल सुधारने के लिये कहा हुआ जो साधु उसे स्वीकार न करके क्रोध करता है वह संसार के प्रवाह में बह जाता है वह संसार को पार करने में समर्थ नहीं होता है । विवेचन - जो अपनी गलती को स्वीकार करके, उसे सुधार लेता है, वही ऊंचा उठ सकता है। सरल मनुष्य ही अपने उत्थान के मार्ग को निष्कण्टक बना सकता है । जो मनुष्य सत्संगति करते हुए भी अपने दोषों को स्वीकार न करके छिपाता है, उसको सत्संगति का कुछ भी लाभ नहीं मिल सकता। वह तो छोटी-छोटीसी बातों में तनता रहकर अपने उत्थान का मार्ग अवरुद्ध बना लेता है । अतः वह आत्म-कल्याण नहीं कर सकता है एवं संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता है। विट्ठणं समयासिट्ठे, डहरेण वुड्ढेण उ चोइए य । अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसि ॥ ८ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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