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भावार्थ - साधु ज्ञातिवर्ग अर्थात् पारिवारिक जनों के संसर्ग को संसार का कारण जान कर छोड़ देवे क्योंकि सभी सांसारिक सम्बन्ध कर्म बन्ध के महान् आस्रव द्वार होते हैं । सर्वोत्तम इस जिनधर्म को सुन कर असंयम जीवन की इच्छा न करे ।
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अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया ।
बुद्धा जत्थावसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं ॥ १४॥ अथ - इसके बाद, इमे य, आवट्टा आवर्त्त, अवसप्पंति दूर हो जाते
कठिन शब्दार्थ - अह
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हैं, सीयंति - फंस जाते हैं ।
भावार्थ - काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ने इन संगों को आवर्त्त = चक्र = भँवर कहा है । ज्ञानी तो उससे दूर हो जाते हैं और अज्ञानी उसमें पड़ कर दुःख पाते हैं । रायाणो राय मच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया । णिमंतयंति भोगेहिं, भिक्खुयं साहु जीविणं ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - रायऽमच्या राज अमात्य - राज्यमंत्री, माहणा णिमंतयंति - आमंत्रित करते हैं, भोगेहिं - भोगों से ।
ब्राह्मण, खत्तिया - क्षत्रिय,
भावार्थ राजा महाराजा और राजमंत्री तथा ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय, उत्तम आचार से जीवन निर्वाह करने वाले साधु को भोग भोगने के लिये आमंत्रित करते हैं । . हत्थऽस्स रह जाणेहिं, विहार-गमणेहि य ।
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अध्ययन ३ उद्देशक २
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भुंज भोगे इमे सग्घे, महरिसी पूजयामु तं ॥ १६॥
कठिन शब्दार्थ - हत्थ - हत्थी - हाथी, अस्स अश्व, रह- रथ, जाणेहिं यान के द्वारा, विहारगमणेहि उद्यान क्रीड़ा से, भुंज - भोगो, भोगे - भोगों को, सग्घे श्लाघनीय, महरिसी महर्षि, पूजयामु- पूजा करते हैं सत्कार करते हैं ।
भावार्थ- पूर्वोक्त चक्रवर्ती आदि मुनि के निकट उपस्थित होकर कहते हैं कि हे महर्षे ! तुम, हाथी, घोड़ा रथ और पालकी आदि पर बैठो तथा क्रीड़ा के लिए बगीचे आदि में चला करो । तुम इन उत्तम भोगों को भोगो । हम तुम्हारी पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं ।
वत्थ-गंध-मलंकारं इत्थीओ सयणाणि य ।
भुंजाहिमाइं भोगाइ, आउसो ! पूजयामु तं ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ वस्त्र, गंधं गंध, अलंकारं सयणाणि शय्या, भोगाइ
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वत्थ
अलंकार, इत्थिओ - स्त्रियाँ, भोगों को, भुंजाहि- भोगो, आउसो - आयुष्मन् ! ।
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