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________________ १०४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000 भावार्थ - हे आयुष्मन् ! वस्त्र, गंध, अलंकार-भूषण, स्त्रियाँ और शव्या इन भोगों को आप भोगें। हम आपकी पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं। जो तुमे णियमो चिण्णो, भिक्खु भावम्मि सुव्वया। अगार-मावसंतस्स, सव्वो संविग्जए तहा ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - चिण्णो - अनुष्ठान किया है भिक्खु भावम्मि - भिक्षु जीवन में, अगारं - घर में, आवसंतस्स - रहते हुए भी, संविजए - विद्यमान रहेंगे । भावार्थ - हे सुन्दरव्रतधारिन् ! तुमने जिन महाव्रत आदि नियमों का अनुष्ठान किया है, वह सब गृहवास करने पर भी उसी तरह बने रहेंगे। चिरं दूइज्जमाणस्स, दोसो दाणिं कुओ तव ? । इच्चेव णं णिमंतेंति, णीवारेण व सूयरं ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - चिरं - बहुत काल तक, दूइज्जमाणस्स-संयम पालन करने वाले के, दाणिं - इदानीं-इस समय, णीवारेण- चावल के दानों से सूयरं - सूअर को । - भावार्थ - हे मुनिवर ! आपने बहुकाल तक संयम का अनुष्ठान किया है । अब भोग भोगने पर भी आपको दोष नहीं हो सकता है इस प्रकार भोग भोगने का आमंत्रण देकर लोग साधु को उसी तरह फंसा लेते हैं जैसे चावल के दानों से सूअर को फँसाते हैं । । विवेचन - गाथा १५ से लेकर १९ तक इन पांच गाथाओं में भोग भोगने रूंप अनुकूल परीषह का वर्णन किया गया है । जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने अपने पूर्वभव के भाई चित्तमुनि को भोगों के लिये निमंत्रित किया था । उसी प्रकार कोई चक्रवर्ती तथा राजमंत्री आदि साधु से कहते हैं कि - हे मुनिवर ! आपने बहुत लम्बे समय तक संयम का पालन किया है । अतः अब भोग भोगने में आपको कोई दोष नहीं लगता । इस प्रकार कहते हुए वे लोग हाथी, घोडा, रथ आदि तथा वस्त्र, गंध, अलंकार आदि नानाविध साधनों के द्वारा संयमी साधु को भोग बुद्धि उत्पन्न करते हैं । इस विषय में दृष्टांत दिया गया है - जैसे चावल के दानों के द्वारा सूअर को कूटपाश में फंसा लेते हैं इसी तरह ये लोग साधु को भी असंयम में फंसाने का प्रयत्न करते हैं और निर्बल एवं कायर साधु को फंसा भी लेते हैं । क्योंकि अनुकूल परीषह को जीतना बड़ा कठिन है । चोइया भिक्खुचरियाए, अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उजाणंसि व दुब्बला ॥ २०॥ कठिन शब्दार्थ - चोइया - प्रेरित किये हुए, भिक्खु-चरियाए - भिक्षु चर्या-साधु समाचारी, अचयंता - असमर्थ, जवित्तए - निर्वाह करने में, उज्जाणंसि - ऊंचे मार्ग में, दुब्बला - दुर्बल बैल । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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