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________________ १०२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 100000000000 0000000..... की तरह कण्ठ में लिपट कर रोता है । मानों वह यह कहता है कि- 'हे मित्र ! तू सुगति में मत जा । आओ हम और तुम दोनों ही साथ साथ दुर्गति में जायेंगे और वहां साथ साथ रहेंगे ।' विबद्धो णाइसंगेहिं, हत्थी वा वि णवग्गहे । पिट्ठओ परिसप्पंति, सुय गो व्व अदूरए ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - णवग्गहे - नया पकड़ा हुआ, पिट्ठओ - पीछे, परिसप्पंति - चलते हैं, सुगो - नयी ब्यायी हुई गाय, अदूरए दूर नहीं होती । भावार्थ - जब वह बंधुओं के स्नेह में बंध जाता है तब वे उसे पकड़े हुए नये हाथी के समान रखते हैं और वे उसको सदा चारों ओर से इस प्रकार घेर रहते हैं कि जिस प्रकार कि गाय अपने . अभी जमे हुए बच्चे को नहीं छोड़ती । विवेचन - जैसे हाथी को पकड़ने वाले जंगल में जाकर हाथी को पकड़ते हैं तब वे लोग कुछ दिन तक नवीन पकडे हुए हाथी के इच्छानुसार बर्ताव करते हैं तथा जैसे नवीन ब्याई हुई गाय बछड़े के पीछे पीछे फिरती है इसी प्रकार वे पारिवारिक जन साधुपने से पतित अपने पुत्रादि के इच्छानुसार करते' हैं तथा उसको चारों ओर से घेरे रहते हैं । एए संगा मणूसाणं, पायाला व अतारिमा । कीवा जत्थ य किस्संति, णाइसंगेहिं मुच्छिया ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - पायाला पाताल - समुद्र में रहे हुए पाताल-कलश, अतारिमा दुस्तर, कीवा - क्लीव - पुरुषत्वहीन, किस्संति क्लेशित होते हैं, णाइसंगेहिं ज्ञातीजनों के संग से । भावार्थ - इस प्रकार सत्त्व - हीन - आत्मबल से रहित पुरुष, इन मनुष्यों के अतल सागर के सम स्नेह-सम्बन्धों से पार नहीं हो सकते हैं और बन्धुओं के संग से आसक्त होकर दुःखी होते हैं । विवेचन - 'पायाला' शब्द से पाताल अर्थात् समुद्र का भी ग्रहण हुआ है और लवण समुद्र में रहे हुए वडवामुख, ईश्वर, केतु और यूपक इन चार पाताल कलशों का भी ग्रहण हुआ है। ये चारों पाताल कलश लवण समुद्र में एक लाख योजन ऊंडे चलें गये हैं। जैसे समुद्र में पड़े हुए प्राणी का बाहर निकलना कठिन है किन्तु माता पिता आदि स्वजन वर्ग का स्नेह रूपी समुद्र और पातालकलश को पार करना उससे भी ज्यादा कठिन है । · Jain Education International - तं च भिक्खू परिण्णाय, सव्वे संगा महासवा । जीवियं णावकंखिज्जा, सोच्चा धम्म- मणुत्तरं ॥ १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - महासवा - महाआस्रव, परिण्णाय जान कर, अणुत्तरं - अनुत्तर-प्रधान, धम्मं - धर्म को । - - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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