________________
अध्ययन ३ उद्देशक २
. १०१ 00000000000000000000000000000000000000000000000
ooooooooooooooooo जं किंचि अणगं ताय ! तं पि सव्वं समीकयं । हिरण्णं ववहाराइ, तं पि दाहामु ते वयं ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - अणगं - ऋण, समीकय - बांट कर चुका दिया है, हिरण्णं - हिरण्य-सोना चांदी, ववहाराइ - व्यवहार के योग्य, दाहामु (दासामु) - देंगे।
भावार्थ - हे तात ! तुम्हारे ऊपर जो ऋण था वह भी हम लोगों ने बराबर बाँट कर ले लिया है तथा तुम्हारे व्यवहार के लिए अर्थात् व्यापार आदि करने के लिये जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी वह भी हम लोग देंगे।
इच्चेव णं सुसेहंति, कालुणीय-समुट्ठिया । . विबद्धो णाइसंगेहि, तओग्गारं पहावइ ॥९॥
कठिन शब्दार्थ - सुसेहंति - शिक्षा देते हैं, कालुंणीय समुट्ठिया- करुणा से युक्त, विबद्धो - बंधा हुआ, पहावइ - दौडता है।
___ भावार्थ - करुणा से भरे हुए बन्धु बान्धव अथवा करुणामय वचन बोल कर, साधु को उक्त रीति से शिक्षा देते हैं । पश्चात् उन ज्ञातियों के संग से बँधा हुआ गुरुकर्मी जीव, प्रव्रज्या को छोड़कर घर चला जाता है ।
जहा रुक्खं वणे जायं, मालुया पडिबंधइ ।
एवं णं पडिबंधंति, णायओ असमाहिणा ॥१०॥ .. कठिन शब्दार्थ - वणे - वन में, जायं - उत्पन्न, मालुया - मालुका-लता, असमाहिणा - असमाधि के द्वारा । ..भावार्थ - जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को लता बांध लेती है, उसी तरह ज्ञाति वाले असमाधि के द्वारा उस साधु को बांध लेते हैं।
विवेचन - जो प्राणी को धर्म से विमुख करे वह मित्र नहीं किन्तु शत्रु है। स्वयं तो दुर्गति का भागी बनता ही है और दूसरों को भी दुर्गति में ले जाता है । जैसा कि कहा है -
अमित्तो मित्तवेसेणं, कंठे घेत्तूण रोयइ । मा मित्ता सोग्गइं जाहि, दो वि गच्छामु दुग्गइं ॥ अमित्रं मित्रवेषेण, कण्ठे गृहीत्वा रोदिति ।। मा मित्र सुगतिं याहि, द्वावपि गच्छावो दुर्गतिम् ॥१॥ अर्थ - वास्तव में परिवार वर्ग मित्र नहीं किन्तु अमित्र है । वे मित्र होने का ढोंग करते हैं । मित्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org