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' श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 को पार नहीं करता है किन्तु अल्प पराक्रमी तथा दुर्बल होने के कारण वह विषम मार्ग में क्लेश भोगता है परंतु भार वहन करने में समर्थ नहीं होता है । __ एवं कामेसणं विऊ, अज्ज सुए पयहेज्ज संथवं ।
कामी कामे ण कामए, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुइ ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - कामेसणं - काम के अन्वेषण में, विऊ- विद्वान्-निपुण, अज्जसुए - आज या कल, संथवं - संस्तव-परिचय, पयहेज - छोड़ दे, लद्धे - लब्ध-मिले हुए, अलद्ध - अलब्ध-अप्राप्त ।
भावार्थ - काम भोग के अन्वेषण में निपुण पुरुष, आज या कल कामभोग को छोड़ दे ऐसी वह चिन्ता मात्र करता है परंतु छोड़ नहीं सकता है । अतः काम भोग की कामना ही न करनी चाहिए और. प्राप्त कामभोगों को अप्राप्त की तरह जानकर उनसे नि:स्पृह हो जाना चाहिए। __. विवेचन - कामभोग संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं ऐसा जानकर भी कायर पुरुष उन को छोड़ नहीं सकता है । इन्हें आज छोडूं, कल छोडूं ऐसा विचार मात्र करता रहता है । उन विचारों में ही जीवन पूरा हो जाता है । जैसा कि कहा है. - ..
आज कहे मैं काल करूं, काल कहे फिर काल । आज काल के करत ही, जीवन जावे चाल ।।
शूरवीर पुरुष तो प्राप्त हुए काम भोगों को भी तत्काल छोड़ देता है जैसे - जम्बूस्वामी, धन्ना शालिभद्र आदि ।
मा पच्छ असाहुया भवे, अच्चेहि अणुसास अप्पगं। अहियं च असाहु सोयइ, से थणइ परिदेवइ बहुं ॥७॥ ..
कठिन शब्दार्थ - पच्छ - पीछे, असाहुया - असाधुता, अच्चेहि - छोड़ दे, अणुसास - शिक्षा दो, अहियं - अधिक, सोयइ - शोक करता है, थणइ - चिल्लाता है, परिदेवइ- रोता है।
भावार्थ - मरण काल के पश्चात् दुर्गति न हो इसलिए विषय सेवन से अपनी आत्मा को हटा देना चाहिए और उसे शिक्षा देनी चाहिए कि असाधु पुरुष, बहुत शोक करता है वह चिल्लाता है और रोता है।
विवेचन - कामभोगों से आत्मा की दुर्गति न हो इसलिये कामभोगों को तत्काल छोड़ देना चाहिये और अपनी आत्मा को इस प्रकार शिक्षा देनी चाहिये कि - अरे ! जीव ! हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कर्मों का सेवन दुर्गति में ले जाने वाला है । वहां परमाधार्मिक देवों द्वारा पीड़ित किये जाने पर जीव बहुत शोक करता है । तिर्यंच गति में जाकर भूख प्यास आदि से पीड़ित होता है अतः बुद्धिमान् पुरुष को विषयसंसर्ग आदि पापकार्य नहीं करने चाहिये ।
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