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________________ ८१ अध्ययन २ उद्देशक ३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इह जीवियमेव पासह, तरुणए वाससयस्स तुट्टई। इत्तर वासे य बुज्झह, गिद्धणरा कामेसु मुच्छिया ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - जीवियं - जीवन को, एव - ही, तरुणए - तरुण-युवावस्था में, तुट्टइ - नष्ट होता है, वाससयस्स (वाससयाउ) - सौ वर्ष की आयु वाले का, इत्तरवासे - थोड़े काल का निवास, गिद्ध - गृद्ध-आसक्त, णरा - मनुष्य । .. भावार्थ - हे मनुष्यो ! इस मर्त्यलोक में पहले तो अपने जीवन को ही देखो। कोई मनुष्य शतायु होकर भी युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः इस जीवन को थोड़े काल का निवास के समान समझो। क्षुद्र मनुष्य ही विषय भोग में आसक्त होते हैं। विवेचन - जैसे समुद्र में लहर उठती है और नष्ट होती रहती है । इसी तरह आयुष्य भी प्रतिक्षण नष्ट होता रहता है । इसको आवीचि मरण कहते हैं । इससे आयुष्य प्रतिक्षण घटता जाता है । वर्तमान में सबसे बड़ा आयुष्य सौ वर्ष झाझेरा माना गया है परन्तु सागरोपम के सामने वह अति अल्प है । तथा ठाणाङ्ग सूत्र में कहे हुए अध्यवसान आदि सात कारणों से बीच में ही टूट जाता है । अतः विषयवासना को छोड़ कर तत्काल धर्म कार्य में लग जाना चाहिये । . प्रश्न - आयुष्य टूटने के सात कारण कौन से हैं ? .. उत्तर - अण्झवसाण णिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए। फासे आणा पाणू, सत्तविहं मिजए आउं ।। (स्थानांग - ९) अर्थ - सोपक्रम आयुष्य वाले जीव के सात कारणों से आयुष्य टूट जाता है । यथा - १. अज्झवसाण-अध्यवसान अर्थात् राग स्नेह या भय रूप प्रबल मानसिक आघात होने पर बीच में ही आयुष्य टूट जाता है । २. निमित्त - दण्ड, शस्त्र आदि का निमित्त पा कर । ३. आहार - अधिक आहार कर लेने पर अथवा आहार का सर्वथा त्याग कर देने पर । ४. वेदना - शरीर में शूल आदि असह्य वेदना होने पर । - ५. पराघात - खड्डे आदि में गिरना; बाह्य आघात पाकर । ६. स्पर्श - सांप आदि के काट खा जाने पर । अथवा ऐसी वस्तु का स्पर्श होने पर जिसको छूने से शरीर में जहर फैल जाय । ७. आणपाण - हार्ट अटैक आदि कारण से श्वांस की गति बन्द हो जाने पर अथवा किसी के द्वारा कण्ठ दबा कर श्वांस की गति रोक देने पर । - इन सात कारणों से व्यवहार नय से, अकाल मृत्यु हो जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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