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___ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
इस प्रकार आयुष्य की क्षणभङ्गरता जान कर धर्म कार्य में जरा भी ढील नहीं करनी चाहिये - बील न कीजे. धर्म में, जप तप लीजे लूट । जैसी शीशी कांच की, जाय पलक में फूट । जैसी शीशी कांच की, वैसी नर की देह ।। जतन करता जावसी, हर भज लावा लेह ।। जे इह आरंभ णिस्सिया, आयदंडा एगंत लूसगा । गंता ते पाव लोगयं, चिररायं आसुरियं दिसं ॥९॥
कठिन शब्दार्थ - आरंभणिस्सिया - आरंभनिश्रित-आरंभ में आसक्त, आयदंडा- आत्मा को दंड देने वाले, एगंत - एकांत रूप से, लूसगा - जीवों के हिंसक, पावलोगयं - पापलोक - नरक में, चिररायं - चिरकाल के लिये, आसुरियं दिसं - असुर संबंधी दिशा को।
भावार्थ - जो मनुष्य आरंभ में आसक्त तथा आत्मा को दंड देने वाले और जीवों के हिंसक हैं वे चिरकाल के लिए नरक आदि पापलोकों में जाते हैं । यदि बाल तपस्या आदि से वे देवता हों तो भी अधम असुर संज्ञक देवता होते हैं।
ण य संखयमाह जीवियं, तहवि य बालजणो पगभइ । पच्चुपण्णेण कारियं, को दहें परलोगमागए ॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - संखयं - संस्कार करने योग्य, पच्चुण्णेण - प्रत्युत्पन्न-वर्तमान सुख से, कारियं - कार्य-प्रयोजन, परलोगं - परलोक को, को - कौन, दटुं - देख कर, आगए - आया है ।
भावार्थ - सर्वज्ञ पुरुषों ने फरमाया है कि - "यह जीवन संस्कार करने योग्य नहीं है अर्थात् टूटा हुआ आयुष्य फिर जोड़ा नहीं जा सकता है ।" तथापि मूर्ख जीव पाप करने में धृष्टता करते हैं । वे कहते हैं कि हमको वर्तमान सुख से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कौन आया है ?
विवेचन - नास्तिक मतावलम्बी चार्वाकों का कहना है कि - स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि परलोक नहीं है, केवल जो कुछ है यह लोक ही है इसलिये इस लोक के सुखों को छोड़ कर परलोक के सुखों की आशा करना मूर्खता है । यथा -
पिव खाद च साधु शोभने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते ।
नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।१। . - अर्थ - हे सुन्दरि ! अच्छे अच्छे पदार्थ खाओ और पीओ । जो वस्तु बीत गई है वह तुम्हारी नहीं है । हे भीरु ! जो वस्तु बीत गई है वह लौट कर नहीं आती है तथा यह शरीर भी पांच महाभूतों का समुदाय रूप है तथा कहा भी है -
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