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________________ अध्ययन २ उद्देशक ३ • ८३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एतवानेव पुरुषो यावनिन्द्रियः गोचरः। . भद्रे ! वृकपदं पश्य यद्वन्त्य बहुश्रुताः ॥२॥ अर्थ - हे भद्रे ! जितना देखने में आता है, उतना ही लोक है । परन्तु अज्ञानी लोग जिस तरह मनुष्य के पंजे को पृथ्वी पर उखडा हुआ देख कर भेडिये के पैर की मिथ्या ही कल्पना करते हैं । उसी तरह परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही करते हैं । प्राप्त हुए सुखों को छोड़ते हैं । यह उनकी अज्ञानता है । कहा है - यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं-कुतः ॥ अर्थ - मनुष्य को चाहिये कि - जब तक जीवे सुख पूर्वक जीवे। यदि घर में सामग्री न हो तो. दूसरों से कर्ज लेकर भी घी पीवे। यदि हम से कोई प्रश्न कर ले कि - 'कर्ज लेकर आया है उसे वापिस चुकाना पड़ेगा, तो हमारा उत्तर है कि - जब यह शरीर जलकर भस्म हो जायेगा उसके साथ ही पांच भूतों से बना हुआ आत्मा भी विनष्ट होकर उन्हीं में विलीन हो जायेगा। फिर न कोई लेने वाला रहेगा न देने वाला रहेगा। . . इस प्रकार नास्तिकों की मान्यता है। जो कि अज्ञान मूलक है। अदक्खुव दक्खुवाहियं, सद्दहसु अदक्खु दंसणा। हंदि हु सुण्णिरुद्ध दंसणे, मोहणिजेण कडेण कम्मुणा॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - अदक्खु - अपश्य - नहीं देखने वाला, व - तरंह, दक्खुवाहियं - सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ, सद्दहसु - श्रद्धा करो, अदक्खुदंसणा - हे असर्वज्ञ दर्शन वाले, हंदि - यह जानो, सुण्णिरुद्ध - जिसकी ज्ञानदृष्टि मंद हो गई। भावार्थ - हे अन्ध तुल्य पुरुष ! तू परवादियों के सिद्धान्त को छोड़ कर सर्वज्ञ कथित सिद्धान्त में श्रद्धाशील बन । क्योंकि मोहनीय कर्म के प्रभाव से जिनकी ज्ञान दृष्टि मंद हो गई है वे सर्वज्ञ कथित आगम को नहीं मानते हैं यह समझो। विवेचन - चार्वाक लोग एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं किन्तु केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने से समस्त व्यवहार का ही लोप हो जाता है। कौन किसका पिता है और कौन किसका पुत्र है यह व्यवहार भी नहीं हो सकता है और संसार का कोई भी कार्य नहीं चल सकता है अतः सर्वज्ञ कथित आगम में श्रद्धा करनी चाहिये। आगम में लोक, परलोक, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, पुण्य पाप आदि सब का कथन किया गया है। जो प्राणी जिस प्रकार का कर्म बांधता है वह उसी प्रकार का फल भोगता भी है। अतएव सर्वज्ञ कथित मार्ग में श्रद्धा करनी चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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