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________________ . अध्ययन २ उद्देशक ३ अधोलोक में जो कामभोग विद्यमान है उन्हें जो महात्मा रोग के सदृश समझते हैं वे संसार पार किये हुए पुरुषों के समान कहे गये हैं। . अग्गं वणिएहिं आहियं, भारती राइणिया इहं । एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - वणिएहिं - वणिकों के द्वारा, आहियं - लाये हुए, अग्गं - अग्र-प्रधान, धारंती - धारण करते हैं, राईणिया- राजा महाराजा आदि, सराइभोयणा - रात्रि भोजन के त्याग सहित। भावार्थ - जैसे वणिक-बनियों (व्यापारियों) के द्वारा लाए हुए उत्तमोत्तम रत्न और वस्त्र आदि को बड़े-बड़े राजा महाराजा आदि धारण करते हैं इसी तरह तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा कहे हुए, रात्रि भोजन विरमण के सहित पांच महाव्रतों को साधु पुरुष धारण करते हैं । - विवेचन - जिस प्रकार प्रधान रत्नों को धारण करने के पात्र (योग्य) राजा महाराजा सेठ साहुकार आदि ही हैं इसी प्रकार महाव्रत रूपी रत्नों को धारण करने योग्य महापराक्रमी साधु पुरुष ही • हैं अर्थात् महापराक्रमी शूरवीर पुरुष ही महाव्रतों को धारण कर सकते हैं, कायर पुरुष नहीं । जे इह सायाणुगा णरा, अग्झोववण्णा कामेहिं मुच्छिया। किवणेण समं पगब्भिया, न वि जाणंति समाहिमाहियं ॥ ४ ॥ · कठिन शब्दार्थ - सायाणुगा - सातानुग-साता सुख के पीछे चलने वाले, अण्झोववण्णा - अध्युपपण्ण-विषयों में आसक्त, किवणेण - कृपण-दीन, समाहिं - समाधि को-धर्मध्यान को। भावार्थ - इस लोक में जो पुरुष सुख के पीछे चलते हैं तथा समृद्धि, रस और सातागौरव में आसक्त हैं एवं काम भोग में मूर्च्छित हैं वे इन्द्रिय लम्पटों के समान ही काम सेवन में धृष्टता करते हैं । ऐसे लोग कहने पर भी धर्मध्यान को नहीं समझते हैं । विवेचन - यहां इन्द्रियवशवर्ती 'पुरुष का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि जो मुनि प्रतिलेखन आदि समिति का पालन अच्छी तरह नहीं करते हैं वे अपने निर्मल संयम को मलिन करते हैं वे धर्मध्यान रूपी समाधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । वाहेण जहावविच्छए, अबले होइ गवं पचोइए । से अंतसो अप्पथामए, णाइवहइ अबले विसीयइ ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - वाहेण - गाड़ीवान् के द्वारा, अवविच्छए- चाबुक मार कर, पचोइए - प्रेरित किया हुआ, गवं - बैल, अप्पथामए - अल्प सामर्थ्य वाला, णाइवहइ - भार वहन नहीं कर सकता है, विसीयइ - क्लेश पाता है । भावार्थ - जैसे गाड़ीवान् के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ भी दुर्बल बैल कठिन मार्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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