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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इस प्रकार दुःख का अनुभव करते हैं जैसे भार से पीडित गदहा उस भार को लेकर चलने में दुःख अनुभव करता है तथा जैसे लकडी के टुकड़ों को हाथ में लेकर सरक कर चलने वाला लँगड़ा मनुष्य अग्नि आदि का भय होने पर भागे हुए मनुष्यों के पीछे पीछे जाता है परन्तु वह आगे जाने में असमर्थ होकर वहीं नाश को प्राप्त होता है इसी तरह संयम पालन करने में दुःख अनुभव करने वाले वे पुरुष मोक्ष तक नहीं पहुंच कर संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं ।
इहमेगे उ भासंति, सायं साएण विज्जइ । जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहिए (यं)॥६॥
कठिन शब्दार्थ - सायं - साता-सुख, सारण - सुख से ही विजइ - प्राप्त होता है, आरियं - आर्य, मग्गं - मार्ग, समाहिए- समाधि-शांति को देने वाला।
भावार्थ - कोई मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है परन्तु वे अज्ञानी हैं क्योंकि परम शान्ति को देने वाला तीर्थंकर प्रतिपादित जो ज्ञानदर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग है उसे जो छोड़ते हैं वे अज्ञानी हैं ।
मा एयं अवमण्णंता, अप्पेणं लुपहा बहुं । एतस्स (उ) अमोक्खाए, अओ हारिव्व जूरह ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - अवमण्णंता - तिरस्कार करते हुए, अप्पेणं - अल्प से, लुपहा - बिगाडो, अमोक्खाए - नहीं छोड़ने पर, अओहारिव्व - (सोना आदि को छोड़ कर) लोहा लेने वाले जूरह - पश्चात्ताप करोगे।
भावार्थ - सुख से ही सुख होता है इस असत्पक्ष को मान कर जिन शासन का त्याग करनेवाले अन्य दर्शनी को कल्याणार्थ शास्त्रकार उपदेश करते हैं कि तुम इस जिनशासन को तिरस्कार करके तुच्छ विषय सुख के लोभ से अति दुर्लभ मोक्ष सुख को मत बिगाड़ों । सुख से ही सुख होता है इस असत्पक्ष को यदि तुम न छोड़ोगे तो सोना आदि छोड़ कर लोहा लेने वाला बनिया जैसे पश्चात्ताप करता है उसी तरह पश्चात्ताप करोगे ।
पाणाइवाए वटुंता, मुसावाए असंजया ।
अदिण्णादाणे वटुंता, मेहुणे य परिग्गहे ॥८॥ .. कठिन शब्दार्थ - वटुंता - वर्तमान, असंजया - असंयत, मेहुणे - मैथुन, परिग्गहे - परिग्रह में। ... भावार्थ - सुख से ही सुख होता है इस मिथ्या सिद्धान्त को मानने वाले शाक्य आदि को शास्त्रकार कहते हैं कि-आप लोग जीव हिंसा करते हैं और झूठ बोलते हैं तथा बिना दी हुई वस्तु लेते हैं एवं मैथुन और परिग्रह.में भी वर्तमान रहते हैं इस कारण आप लोग संयमी नहीं है ।
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