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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
जहा य पुढवी. थूभे, एगे णाणा हि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विष्णू णाणा हि दीसइ ॥९॥
कठिन शब्दार्थ - पुढवी थूभे - पृथ्वी समूह, णाणा हि - नाना रूपों में, दीसइ - दिखाई देता है, कसिणे - कृत्स्न-सम्पूर्ण विण्णू - विज्ञ, विद्वान् ।। ____भावार्थ - जैसे एक ही पृथिवी समूह, नाना रूपों में देखा जाता है उसी तरह एक आत्मस्वरूप यह समस्त जगत् नाना रूपों में देखाई देता है।
एवमेगेत्ति जप्पंति, मंदा आरंभणिस्सिया । एगे किच्चा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं णियच्छइ ॥ १० ॥
कठिन शब्दार्थ - जप्पंति (जपंति) - बतलाते हैं, मैदा - मन्द-अज्ञानी, आरंभणिस्सिया - आरंभ में आसक्त, किच्चा - करके, पावं - पाप, तिव्वं - तीव्र, णियच्छइ - प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ - कोई अज्ञानी पुरुष, एक ही आत्मा है ऐसा कहते हैं लेकिन आरम्भ में आसक्त रहने वाले जीव ही पाप कर्म करके स्वयं दुःख भोगते हैं, दूसरे नहीं।
विवेचन - गाथा ७ से १० तक भौतिक एक तत्त्ववादी और ब्रह्म एक तत्त्ववादी के मत का प्रतिपादन और उनकी मिथ्या मान्यता का निरूपण किया गया है। दोनों वादी एक दूसरे का खण्डन करते हैं। भूतवादी (७-८ गाथा में) दृश्य का ही अस्तित्व स्वीकार करता है और द्रष्टा का निषेध करता है अर्थात् दृश्य वस्तुओं से भिन्न द्रष्टा का होना नहीं मानता है और दूसरा वादी 'एकमेवाद्वितीयम्' - एक ब्रह्म ही है, दूसरा कोई नहीं है - ऐसा मानता है। द्रष्टा के सिवाय दृश्य वस्तुओं का अस्तित्व है ही नहीं। अर्थात् जड़ और चेतन एक ही तत्त्व के दो रूप हैं। ___शास्त्रकार एक तत्त्ववाद को (१० वी गाथा में) अयुक्त बतलाते हैं। क्योंकि दोनों ही एक तत्त्ववादी के सिद्धान्तों से प्रत्यक्ष बद्ध-बन्धक का भाव का निषेध हो जाता है और इस श्रद्धा के फलस्वरूप जीव आरंभ परिग्रह में फंसता जाता है । अतः ये वाद दु:ख के कारण हैं ।
पत्तेयं कसिणे आया, जे बाला जे य पंडिया । संति पिच्चा ण ते संति, णत्थि सत्तोववाइया ॥ ११ ॥
कठिन शब्दार्थ - पत्तेयं - प्रत्येक, कसिणे - कृत्स्न-सम्पूर्ण, आया - आत्मा, जे - जो, पिच्चा (पेच्चा)- परभव में जाकर, सत्ता - प्राणी, उववाइया - परलोक में जाने वाला।
भावार्थ - जो अज्ञानी हैं और जो ज्ञानी हैं उन सब का आत्मा भिन्न-भिन्न है एक नहीं है । मरने के पश्चात् आत्मा नहीं रहता है अतः परलोक में जाने वाला कोई नित्य पदार्थ नहीं है ।
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