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________________ अध्ययन १ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ११ विवेचन - इस गाथा में तज्जीवतच्छरीर (तत् जीव तत् शरीर) वादी के मत का कथन किया गया है। "स एव जीव स्तदेव शरीरमिति वदितुं शीलमस्येति तज्जीवतच्छरीरवादी" अर्थात् वही जीव है और वही शरीर है। जो इस प्रकार मानता है उसे "तज्जीवतच्छरीरवादी" कहते हैं । यद्यपि पूर्वोक्त पञ्च भूतवादी भी शरीर को ही आत्मा कहता है तथापि उसके मत में पांच भूत ही शरीर रूप में परिणत हो कर सब प्रकार की क्रियाएं करते हैं परन्तु 'तज्जीवतच्छरीरवादी' के मत में यह नहीं है। उसकी मान्यता है कि शरीर रूप में परिणत पांच भूतों से चैतन्यशक्ति आत्मा की उत्पत्ति होती है। यही इसका भूतवादी से भेद है। णत्थि पुण्णे व पावे वा, णत्थि लोए इओवरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - णत्थि - नहीं, इओवरे - इससे दूसरा, लोए - लोक। भावार्थ - पुण्य और पाप नहीं हैं । इस लोक से भिन्न दूसरा लोक भी नहीं है शरीर के नाश से आत्मा का भी नाश हो जाता है । विवेचन - प्रश्न - पुण्य किसे कहते हैं ? .. उत्तर - "पुणति शुभीकरोति, पुनाति वा पवित्रीकरोति आत्मानम् इति पुण्यम" अर्थात् जो आत्मा को शुभ करे आत्मा को पवित्र बनावे उसे पुण्य कहते हैं । वह सातावेदनीयादि ४२ प्रकार का है। थोकड़ा वाले बोलते हैं कि जो आत्मा को पवित्र करे, नीची स्थिति से ऊंची स्थिति में लावे, धर्म के सन्मुख करे उसे पुण्य कहते हैं। पुण्य उपार्जन करना बडी कठिनाई से होता है। पुण्य को भोगना सरल है पुण्य के फल जीव के लिये मधुर और सुखदायी होते हैं। . : प्रश्न - पाप किसे कहते हैं ? उत्तर - "पातयति नरकादिषु इंति पापम्।" पांशयति गुण्डयति आत्मानं पातयति च आत्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् ।" .. अर्थात् जो आत्मा को नरकादि दुर्गतियों में डाले, आत्मा को मलिन करे तथा आत्मा के आनन्द रस को सुखावे उसे पाप कहते हैं। पाप उपार्जन करना सरल है पर उसे भोगना बड़ा कठिन है। हंसतेहंसते जीव पाप कर्म बांध लेता है पर भोगते समय बहुत रोता है किन्तु रोने से भी छुटकारा होता नहीं ... पाप के फल तो अवश्य भोगने पड़ते हैं। हरिभद्रीयाष्टक में पुण्य पाप के सम्बन्ध में एक चौभंगी कही गई है यथा - १. पुण्यानुबन्धी पुण्य - अर्थात् वर्तमान भव का ऐसा पुण्य जो आगामी काल के लिये पुण्य का अनुबन्ध करावे । जैसे - भरत चक्रवर्ती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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