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________________ अध्ययन १४ २९५ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000०००००००००० गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा । ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय से विप्पमायं न कुज्जा ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - गंथं - ग्रंथ (परिग्रह) को, विहाय - छोड़ कर, सिक्खमाणो - शिक्षा पाता हुआ, उट्ठाय - प्रवजित हो कर, सुबंभचेरं - ब्रह्मचर्य का अच्छी तरह से, वसेज्जा - पालन करे, ओवायकारी - आज्ञा का पालन करता हुआ, सुसिक्खे - सीखे, छेय - निपुण, विप्पमायं - विप्रमाद । भावार्थ - इस लोक में परिग्रह को छोड़कर शिक्षा पाता हुआ पुरुष दीक्षा लेकर अच्छी तरह ब्रह्मचर्य का पालन करे । तथा वह आचार्य की आज्ञा पालन करता हुआ विनय सीखे । एवं संयम पालन करने में निपुण पुरुष कभी भी प्रमाद न करे ।। . विवेचन- तेरहवें अध्ययन में शुद्ध चारित्र पालन का वर्णन किया गया है। परन्तु वह शुद्ध चारित्र का पालन बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि को छोड़े बिना नहीं हो सकता है, इसलिए इस चौदहवें अध्ययन में उस ग्रन्थ का वर्णन किया जाता है। दीक्षा लेकर बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके ग्रहण रूप और आसेवन रूप शिक्षा को एवं गुरु की आज्ञा का सदा पालन करता रहे, इसमें किसी प्रकार का प्रमाद न करें, जिस प्रकार रोगी पुरुष वैद्य के बताए हुए पथ्य का पालन करता हुआ, प्रशंसा का पात्रं होकर स्वस्थ बन जाता है, उसी प्रकार जो साधु सावद्य अनुष्ठानों का त्याग करके औषध रूप गुरु के उपदेश का पालन करता है, वह संसार में प्रशंसा का पात्र होता हुआ समस्त कर्मों का क्षय कर के मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जहा दिया-पोत-मपत्त-जातं, सावासगा पविडं मण्णमाणं । तमनाइयं तरुण-मपत्त-जातं, ढंकाइ अव्वत्तगमं हरेज्जा ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - दिया - द्विज-पक्षी, अपत्तजातं - पूरे पंख आये बिना, पोतं - पक्षी के बच्चे को, सावासगा - अपने घोंसले से, पवित्रं - उड़ने की, तं - उसको, अचाइयं - समर्थ नहीं होता, तरुणमपत्तजातं - पंख हीन बच्चे को, ढंकाइ - ढंक आदि पक्षी से, अव्वत्तगयं - उड़ने में असमर्थ, हरेजा - हर लिया जाता है । . भावार्थ - जिसको अभी पूरा पक्ष (पंख) नहीं आया है ऐसा पक्षी का बच्चा जैसे उड़ कर अपने ' घोसले से अलग जाना चाहता हुआ उड़ने में समर्थ नहीं होता है किन्तु झूठ ही फड़फड़ करता हुआ वह ढंक आदि मांसाहारी पक्षियों से मार दिया जाता है इसी तरह जो साधु आचार्य की आज्ञा बिना अकेला विचरता है वह नष्ट हो जाता है । एवं तु सेहपि अपुट्ठ-धम्मं, णिस्सारियं वुसिमं मण्णमाणा । दियस्स छायं व अपत्त-जायं, हरिसु णं पावधम्मा अणेगे ॥ ३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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