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________________ अध्ययन १६ ३२१ तरह से आचरण करने वाला पुरुष साधु होता है। यह इस अध्ययन में बतलाया जाता है। इस अध्ययन का नाम 'गाथा' है। गाथा शब्द का अर्थ नियुक्तिकार ने अनेक तरह से किया है। संक्षिप्त अर्थ यह है - 'अलग-अलग स्थित अर्थं जिसमें एकत्र मिले हुए होते हैं उसे गाथा कहते हैं।' गाथा का उच्चारण कानों को प्रिय लगता है क्योंकि वह प्राकृत भाषा में मधुर शब्दों से बनी हुई होती है। अथवा जो गाई जाती है उसे गाथा कहते हैं।' इन्द्रियों को दमन करने वाले को दान्त कहते हैं। मुक्ति जाने की जिसमें योग्यता है उसे द्रव्य (भव्य) कहते हैं। जो शरीर का प्रतिकर्म (स्नानादि द्वारा सेवा सुश्रूषा एवं श्रृंगार) नहीं करता है उसे व्युत्सृष्ट काय (शरीर की ममता से रहित) कहते हैं। जीवों को 'मत मारो' ऐसा जो उपदेश देता है और स्वयं भी आचरण करता है उसको 'माहन् कति हैं। अथवा ब्राह्मण को माहण कहते हैं। ... 'श्रमु' तपसि खेदे च इस संस्कृत धातु से 'श्रमण' शब्द बनता है जिसका अर्थ है - जो स्वयं तपस्या में श्रम करता है और जगत् के जीवों के स्वरूप को समझ कर उनके दुःख निवारण के लिए प्रयत्न करता है एवं उनकी रक्षा करता है उसको 'श्रमण' कहते हैं। - जो पांच महाव्रतों का पालन करता है और समिति गुप्ति से युक्त है ऐसा मुनि केवल शरीर निर्वाह के लिये ४२ दोष टालकर गृहस्थों के घर से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर अपने शरीर का निर्वाह करता है उसे 'भिक्षु' कहते हैं। जो नौ प्रकार का बाह्य और चौदह प्रकार का आभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) का तीन करण तीन योग से त्याग कर देता है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। .यहाँ पर प्राणातिपात आदि अठारह पापों के त्यागी को 'माहन' कहा है। एत्य वि समणे अणिस्सिए, अणियाणे, आयाणं च अइवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिग्जं च दोसं च इच्चेव जओ, जओ आदाणं अप्पणो पहोस-हेउ तओ तओ आयाणाओ पुव्वं पडिविरए पाणाइवाइया सिया, दंते दविए वोसट्टकाए समणे त्ति वच्चे ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - अणिस्सिए - अनिश्रित-अनासक्त, अणियाणे - निदान रहित, अइवायं - प्राणातिपात, मुसावायं - मृषावाद, बहिद्धं - मैथुन और परिग्रह, पहोस हेउ - द्वेष का हेतु, आयाणाओ - आदान-कर्म बंध के कारणों से, पडिविरए - प्रति विरत । भावार्थ - जो साधु पूर्वोक्त गुणों से युक्त होकर शरीर आदि में आसक्त न रहता हुआ अपने तप आदि का सांसारिक सुख आदि फल की कामना नहीं करता है एवं प्राणातिपात नहीं करता है, झूठ नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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