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________________ गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन अहाह भगवं-एवं से दंते दविए वोसट्टकाए त्ति वच्चे माहणे ति.वा, समणे त्ति वा, भिक्खु त्ति वा, णिग्गंथे त्ति वा । पडिआह-भंते ! कहं णु दंते दविए वोसट्टकाए त्ति वच्चे माहणे त्ति वा, समणे त्ति वा, भिक्खु त्ति वा, णिग्गंथे त्ति वा । तं णो बूहि महामुणी । इति विरए सव्व-पाव-कम्मेहिं पिज्जदोस-कलह, अब्भक्खाण, पेसुण्ण, परपरिवाय, अरति-रति, मायामोस, मिच्छादंसण-साल-विरएं समिए सहिए सया जए णो कुण्झे णो माणी माहणेत्ति वच्चे। कठिन शब्दार्थ - दंते - दान्त, दविए - द्रव्य-मुक्ति जाने योग्य गुणों से युक्त, वोसट्टकाए - काया का व्युत्सर्ग करने वाला, माहणे - माहण, समणे - श्रमेण, भिक्खु - भिक्षु, णिग्गंथे - निर्ग्रन्थ, पडिआह - शिष्य ने पूछा, विरए - विरत, पिज-दोस - रागद्वेष, अब्भक्खाण - अभ्याख्यान, मिच्छादसणसल्लविरए - मिथ्यादर्शन शल्य से विरत, समिए - समित-समितियों से युक्त, सहिए - ज्ञानादि गुणों सहित, जए - संयत, कुण्झे - क्रोध, माणी - मान । ___ भावार्थ - पन्द्रह अध्ययन कहने के पश्चात् भगवान् ने कहा कि - पन्द्रह अध्यायों में कहे हुए अर्थ से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ मुक्ति जाने योग्य शरीर को व्युत्सर्ग किया हुआ है उसे माहन, श्रमण, भिक्षु, अथवा निर्ग्रन्थ कहना चाहिये । शिष्य ने पूछा - हे भदन्त ! पन्द्रह अध्ययनों में कहे हुए अर्थ से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय और मन को जीता हुआ मुक्ति जाने योग्य तथा काय-व्युत्सर्ग किया हुआ है वह क्यों माहन, श्रमण, भिक्षु अथवा निर्ग्रन्थ कहने योग्य हैं ? हे महामुने! यह मुझ को आप बताइये ? पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में जो उपदेश किया है उसके अनुसार आचरण करने वाला जो पुरुष सब पापों से हटा हुआ है तथा किसी से राग द्वेष नहीं करता है, किसी से कलह नहीं करता है, किसी पर झूठा दोष नहीं लगाता है, किसी की चुगली नहीं करता है, किसी की निन्दा नहीं करता है एवं संयम में अप्रेम और असंयम में प्रेम नहीं करता है, कपट नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मिथ्यादर्शन शल्य से अलग रहता है पाँच गुप्तिओं से गुप्त और ज्ञानादि गुणों के सहित, सदा इन्द्रियों को जीतने वाला किसी पर क्रोध नहीं करता है, मान नहीं करता है वह 'माहन' कहने योग्य है। विवेचन - पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में विधि निषेध के द्वारा जो अर्थ कहे गये हैं उनका उसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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