________________
अध्ययन १२
२८३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - जो जीवादि नव तत्त्वों को जानता हैं और वैसी ही प्ररूपणा करता है वह क्रियावादी है। यहाँ पर सम्यग्दृष्टि क्रियावादी का ग्रहण किया गया है। यह क्रियावादी भव्य और मोक्षगामी होता है।। २१ ॥
सद्देसुरूवेसुअसज्जमाणे, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । णो जीवियं णो मरणाहिकंखी, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ॥त्ति बेमि॥२२॥
कठिन शब्दार्थ - असजमाणे - आसक्त न होता हुआ, अदुस्समाणे - द्वेष न करता हुआ, जीवियं - जीने की, मरणाहिकंखी - मृत्यु की इच्छा न करने वाला, आयाणगुत्ते - संयम से गुप्त, वलया - वलय (संसार) से, विमुक्के - विमुक्त हो जाता है ।
भावार्थ - साधु मनोज्ञ शब्द और रूप में आसक्त न हो, तथा अमनोज्ञ गन्ध और रस में द्वेष न करे एवं वह जीने या मरने की इच्छा न करे किन्तु संयम से युक्त तथा मायारहित होकर विचरे यह मैं कहता हूँ।
विवेचन - पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष न करे। अर्थात् राग-द्वेष रहित होकर रहे, असंयम जीवन की इच्छा न करे तथा परीषह उपसर्गों से पीड़ित होकर मरण की इच्छा न करे। ऐसा आचरण करने वाला मुनि शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।
. - इति ब्रवीमि - . अर्थात् - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वेसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ।
॥समवसरण नामक बारहवां अध्ययन समाप्त॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org