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अध्ययन १०
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बायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ण हु छलिओ। __ इण्हिं जह ण छलिञ्जसि भुंजंतो रागदोसेहिं ॥१॥ छाया - द्विचत्वारिंशदेषणादोषसंकटे जीव ! नैव छलितः।
इदानीं यदि न छल्यसे भुञ्जन् रागद्वेषाभ्यां (तदा सफलं तत्) ॥ १ ॥
अर्थ - हे जीव ! ४२ दोष रूप गहन सङ्कट में तो तूने धोखा नहीं खाया है परन्तु अब आहार करते समय यदि तू राग द्वेष के द्वारा धोखा नहीं खायेगा तो तेरा सब सफल है। शरीर निर्वाह के लिये आहार करना है। इसलिये मुनि को विशिष्ट आहार की इच्छा नहीं करते हुए अन्त प्रान्त आहार से संयम का निर्वाह करना चाहिये। साधु को संयम पालन में धैर्यवान् होना चाहिये और उसे बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होकर पूजा प्रतिष्ठा का अभिलाषी नहीं होना चाहिये।
णिक्खम्म गेहाउ. णिरावकंखी, कायं विउसेज णियाणछिण्णे ।
णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के ।त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - णिक्खम्म - निकल कर, गेहाउ - घर से, णिरावकंखी - निरवकांक्षीअनासक्त, विउसेज - व्युत्सर्ग करे, णियाणछिण्णे - निदान को छिन्न करे, मरणाभिकंखी - मरण की चाहना वाला, वलया - भव के वलय-संसार-से, विमुक्के - मुक्त होकर, चरेज - विचरे ।
भावार्थ - प्रव्रज्या धारण किया हुआ पुरुष अपने जीवन से निरपेक्ष होकर काया का व्युत्सर्ग करे एवं वह अपने तप के फल की भी इच्छा न करे इस प्रकार जीवन और मरण की इच्छा छोड़ कर संसारी संकटों से अलग रहता हुआ साधु विचरे । - विवेचन - गृहवास को छोड़ कर दीक्षा धारण करने वाले मुनि को चाहिये कि वह असंयम जीवन की इच्छा नहीं करे तथा शरीर का मोह छोड़ कर उसकी सेवा शुश्रूषा न करता हुआ किसी भी प्रकार का निदान (नियाणा) नहीं करे। इसी तरह साधु जीवन और मरण की इच्छा भी न करे। कर्म बन्धनों से मुक्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे। इसी से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
- इति ब्रवीमि - अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ।
॥समाधि नामक दसवां अध्ययन समाप्त॥
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