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________________ मार्ग नामक ग्यारहवाँ अध्ययन किसी निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना हो या वहाँ तक पहुँचना हो तो कुछ प्रयत्न करना पड़ता हैचलना या आचरण करना पड़ता है । प्रयत्न, गमन या आचरण का जो माध्यम होता है उसी का नाम मार्ग है । अतः मुक्ति एक निर्दिष्ट लक्ष्य होने के कारण उसका भी मार्ग होना ही चाहिये । उसी मार्ग का इस अध्ययन में कथन किया गया है। दसवें अध्ययन में समाधि का कंथन किया गया है। वह ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप होती है तथा भाव मार्ग भी यही है। उसी मार्ग का कथन इस ग्यारहवें अध्ययन में किया गया है। कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मइमया । जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरइ दुत्तरं ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ कयरे कौनसा, मग्गे मार्ग, अक्खाए- कहा है, माहणेणं - भगवान् महावीर स्वामी ने मइमया मतिमान् (केवलज्ञानी) उज्जु- सरल, पावित्रा पा कर, ओहं ओघ संसार प्रवाह को, तर - पार होता है, दुत्तरं - दुस्तर । भावार्थ - अहिंसा के उपदेशक केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा मोक्ष का मार्ग बताया है, जिसको प्राप्त कर जीव संसार सागर से पार होता है । - - Jain Education International - - विवेचन - मा-हन- जीवों को मत मारो ऐसा जो उपदेश देते हैं उसे 'माहन' कहते हैं। यहाँ पर गाथा में 'मतिमान्' शब्द दिया । जो लोक तथा अलोक में रहने वाले सूक्ष्म, व्यवहित, दूर, भूत, भविष्य और वर्तमान सभी पदार्थों को प्रकाशित करती है उसे मंति कहते हैं । यहाँ केवलज्ञान को मति कहा है। वह भगवान् में विद्यमान हैं इसलिये भगवान् को मतिमान् कहा है। उन भगवान् के द्वारा बताया हुआ जो मोक्ष मार्ग है वह प्रशस्त भाव मार्ग है तथा वह वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताने के कारण मोक्ष प्राप्ति के लिये सरल मार्ग है । वह मार्ग सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप है। यद्यपि संसार सागर को तिरना दुस्तर ( मुश्किल से तिरने योग्य) कहा है । परन्तु वास्तव में देखा जाय तो संसार समुद्र को तिरना उतना कठिन नहीं है जितना तिरने की सामग्री को पाना कठिन है। जैसा कि कहा है - माणुसखेत्तजाईकुल रुवारोगमाठयं बुद्धी । सवणोग्गहसद्धासंजमो य लोयंमि दुलहाई ॥ १ ॥ अर्थ- मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, नीरोग शरीर, लम्बा आयुष्य, बुद्धि, सुनने का योग, जिनेन्द्र भगवान् के वचनों पर श्रद्धा और शुद्ध संयम का पालन। इन दस बातों की For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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