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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - जस्सिं - जिसमें, समुप्पण्णे - उत्पन्न हुआ है, संवसे - निवास करता है, ममाइ - ममत्व रखता है, लुप्पइ - पीडित होता है, मुच्छिए - मूछित होता है।
भावार्थ - जो आत्मा जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिन-जिन के संग में रहता है उनसे वह यह समझ कर ममत्व करता है कि - 'यह मेरा है।' इस प्रकार वह (आत्म विकास में) 'बाल' (अज्ञानी) एक पर से दूसरे पर आसक्त होता रहता है।
विवेचन - यहां 'अण्णे अण्णेहिं' (अण्णमण्णेहिं)- अन्य अन्य शब्द दो बार दिया हैं । इससे यह बताया गया है कि ज्यों-ज्यों प्राणी का संग बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसकी आसक्ति भी बढ़ती जाती है या आसक्ति के पात्र बदलते रहते हैं । वह पहले माता-पिता में स्नेह करता है उसके बाद पत्नी में और फिर पुत्र आदि में स्नेह करता जाता है। ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - जीव अकेला ही आता है और पर भव में अकेला ही जाता है अपने कर्मों से पीड़ित होते हुए प्राणी के लिये उसके माता-पिता आदि कोई भी त्राण-शरणभूत नहीं हो सकते हैं और वह भी किसी के लिये त्राण-शरणभूत नहीं हो सकता है। दूसरों का अपने लिये त्राण शरणभूत मानना यही उसकी बड़ी अज्ञानता है।
वित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेयं ण ताणइ । संखाए जीवियं चेव, कम्मुणा उ तिउट्टइ ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - वित्तं - धन, सोयरिया - सोदर्य-सहोदर, ताणइ - रक्षा करता है, संखाए - यह जान कर, जीवियं - जीवन को, कम्मुणा - कर्म से ।
भावार्थ - धन, दौलत और सहोदर-एक माता के उदर से जन्मे हुए सगे भाई बहिन आदि ये सब रक्षा के लिए समर्थ नहीं होते हैं तथा जीवन भी अल्प है यह जानकर जीव, कर्म से पृथक् हो जाता है ।
विवेचन - 'संखाए जीवियं चेव, कम्मुणा उ तिउट्टइ' इस श्लोकार्ध का टीकाकार ने यह अर्थ किया है - "और जीवन थोड़ा है यह ज्ञ परिज्ञा से जान कर, प्रत्याख्यान परिज्ञा से स्नेहादि को छोड़ कर, कर्म से दूर हो जाता है या संयम अनुष्ठान रूप क्रिया से बन्धनों को तोड देता है। ___प्रथम गाथा में यह प्रश्न उपस्थित किया गया था कि - किसे जान कर व्यक्ति कर्म-बन्धन को तोड़ सकता है ? इस का उत्तर इस पांचवीं गाथा में दिया गया है - इसमें कर्मबन्धन तोड़ने के दो उपाय बताये गये हैं यथा -
१. जितने भी सजीव (माता-पिता आदि परिजन) तथा अजीव (सोना, चान्दी आदि धन) पदार्थ हैं वे अपने कर्मों से दुःखित होते हुए प्राणी की, रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं।
२. जिस जीवन और शरीर की रक्षा के लिये अनेक प्रकार के पाप कार्य करके अनेक प्रकार के साधन जुटाता है। वह जीवन और शरीर भी क्षणभङ्गर है।
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