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________________ अध्ययन १ उद्देशक १ 0000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पण्णवणा सूत्र के २२ वें क्रियापद में बतलाया गया है कि - 'परिग्गहिया' क्रिया में आरम्भिया क्रिया की नियमा है और 'आरम्भिया' क्रिया में 'परिग्गहिया' क्रिया की भजना है अर्थात् जिसको पारिग्रहिकी क्रिया लगती है उसको आरम्भिकी क्रिया अवश्य लगती है (नियमा) और जिसको आरम्भिकी क्रिया लगती है उसको पारिग्रहिकी क्रिया भजना से लगती है(अर्थात् लगती भी है और नहीं भी लगती है)। ठाणाङ्ग सूत्र के तीसरे ठाणे में श्रावक के तीन मनोरथ का वर्णन चलता है. वहाँ भी पहले मनोरथ में बतलाया गया है कि-वह दिन मेरा धन्य होगा जिस दिन मैं थोड़ा या बहुत परिग्रह का त्याग करूंगा। हिन्दी का दोहा इस प्रकार है आरम्भ परिग्रह कब तजूं, कब लूं महाव्रत धार। कब शुद्ध मन आलोयणा, करूं संथारो सार ॥ यद्यपि इस दोहे में आरम्भ शब्द भी दिया है किन्तु ठाणाङ्ग सूत्र के तीसरे ठाणे में केवल परिग्रह शब्द ही है। वहाँ शास्त्रकार का अभिप्राय यह है कि - जब परिग्रह छूट जायेगा तो आरम्भ तो अपने आप ही छूट जायेगा। , प्रश्न - जैन सिद्धान्त में आत्मा को अजर अमर माना है। फिर उसकी हिंसा कैसे होती है ? : उत्तर - प्रश्न उचित है उसका समाधान शास्त्रकार ने इस प्रकार दिया है - पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच, उच्छ्वास निःश्वा-समथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिक्ता, स्तेषां वियोगि-करणंतु हिंसा ॥१॥ अर्थ - पांच इन्द्रिय, मन बल, वचन बल, काया बल, उच्छ्वासनिश्वास और आयु। तीर्थङ्कर भगवान् ने ये दस प्राण कहे हैं । प्राणी से (जीव से) इन प्राणों का वियोग करना हिंसा है। अठारह पाप स्थानों में पहला पाप हिंसा न कह कर प्राणातिपात कहा है। गाथा में "तिवायए" पद दिया है। अकार का इसमें लोप हो गया है इसलिये इसकी संस्कृत छाया 'अतिपातयेत्' करनी चाहिये। प्राणियों के प्राणों . का विनाश करने वाला जीव उन प्राणियों के साथ सैकड़ों जन्मों के लिये अपना वैर बढा लेता है इस कारण वह जीव दुःख परम्परा रूप बन्धन से मुक्त नहीं होता है। अतः सुखार्थी एवं मोक्षार्थी पुरुष का कर्तव्य है कि - वह प्राणातिपात, मृषावाद आदि अठारह ही पापस्थानों का तीन करण करना, . करवाना, अनुमोदन करना) और तीन योग (मन, वचन, काया) से त्याग कर दे। ... जस्सिं कुले समुप्पण्णे, जेहिं वा संवसे णरे । ममाइ लुप्पइ बाले, अण्णे अण्णेहिं 8 मुच्छिए ॥४॥ ® 'अण्णमण्णेहिं' इति पाठान्तर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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