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________________ ६ ............. प्राणी इस संसार में जीवन-यापन करता हुआ चेतन या अचेतन द्रव्यों से अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है। उनमें आसक्ति रख कर अपने को उनसे बांध लेता है। यही बन्धन है। यही परिग्रह है । किन्तु बन्धन को परिग्रह रूप समझना तब ही संभव है जब कि मनुष्य की दृष्टि सम्यक् हो । प्रायः मनुष्य परिग्रह बढाने को ही सुख और सुविधा का कारण समझता है। उसमें ही उसे स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता दिखाई देती है । यही सबसे बड़ा भ्रम है। इस भ्रम को दूर कर बन्धन के स्वरूप को समझ कर उसे तोड़ना चाहिये । परिग्रह से दूसरी तरह से दो प्रकार किये हैं यथा - बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर परिग्रह । बाह्य परिग्रह के ९ भेद हैं यथा - श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ **.................................................................................................... १. क्षेत्र (खुली जमीन ) २. वास्तु ( ढंकी जमीन मकान आदि) ३. सोना ४. चान्दी ५. धन ६. धान्य ७. द्विपद ८. चतुष्पद ९. कुप्य ( कुविय - घर बिखरी की चीजें टेबल, मेज, कुर्सी, सिरक पथरना आदि) । आभ्यन्तर परिग्रह के १४ भेद हैं यथा १. हास्य २. रति ३. अरति ४. भय ५. शोक ६. जुगुप्सा ७. स्त्री वेद ८. पुरुष वेद ९. नपुंसक वेद १०. क्रोध ११. मान १२. माया १३. लोभ १४. मिथ्यात्व । ये सब परिग्रह बन्धन (कर्म बन्धन) हैं। इनको तोड़ने से मुक्ति की प्राप्ति होती है । सयं तिवाय पाणे, अदुवाऽण्णेहिं घाय । - हणतं वाऽणुजाण, वेरं वड्डइ अप्पणो ॥ ३॥ कठिन शब्दार्थ - सयं स्वयं - अपने आप तिवायए अतिपात करता है - मारता है, पाणे - प्राणियों को, घायए घात करवाता है, हणंतं घात करते हुए को, वेरं वैर, वड्डइ बढाता है, अप्पणो अपना । - भावार्थ - जो पुरुष स्वयं प्राणियों का घात करता है अथवा दूसरे द्वारा घात करवाता है अथवा प्राणियों का घात करते हुए पुरुषों का अनुमोदन करता है वह, मारे जाने वाले प्राणियों के साथ अपना बढ़ाता है। 1 Jain Education International - विवेचन - बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर परिग्रह - मूर्च्छादि का कारण हो जाता है । मूर्च्छावश प्राणी आरम्भ करता महान् अनर्थ करता रहता है । इसलिये परिग्रह और आरम्भ ये दोनों सुख स्वरूप आत्मा के लिये कठोर बन्धन हैं। संसार को बढ़ाते हैं। महा आरंभ और महा परिग्रह नरक गति का कारण है । * 'अणुजाणाइ' इति पाठान्तर । - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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