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________________ अध्ययन १ उद्देशक १ उत्तर - तत्त्वार्थ सूत्र के आठवें अध्ययन में बतलाया गया है - "सकषायित्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलन् आदत्ते " अर्थ - कषाययुक्त होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । कषाय के भी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनेक भेद हैं। इन सबका समावेश राग और द्वेष इन दो में हो जाता है। यद्यपि कर्मबन्ध के कारण में योग को भी लिया है परन्तु दसवें गुणस्थान तक कषाय के निमित्त से कर्मबन्ध होता है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्थानों में योग के निमित्त से सिर्फ 'ईरियावहि' कर्म का बन्ध होता है। वह मात्र साता रूप होता । उसकी स्थिति मात्र दो समय की है। प्रथम समय में बन्धता है दूसरे समय में वेदा जाता है और तीसरे समय में निर्जरित (क्षय) हो जाता है। इसलिये यहां पर योग को गौण कर दिया गया है। कषाय को ही कर्मबन्ध का प्रधान कारण माना गया है। चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिझ किसामवि । अणं वा अणुजाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - चित्तमंतं - चित्तवान् अर्थात् ज्ञान युक्त अचित्तं अचित्त - चेतन रहित, परिगिज्झ - परिग्रह रख कर, अणुजाणइ (अणुजाणाइ) - अनुज्ञा देता है, दुक्खा ण मुच्चड़ मुक्त नहीं होता है । दुःख से, भावार्थ - जो (पुरुष) सजीव द्विपद चतुष्पद आदि चेतन प्राणी को, अथवा निर्जीव चैतन्य रहित सोना चाँदी आदि पदार्थों को, अथवा तृण भूस्सा आदि तुच्छ पदार्थों को भी परिग्रह रूप से रखता है अथवा रखवाता है और अनुमोदन करता है वह दुःख से मुक्त नहीं होता है । विवेचन - पहली गाथा में दो प्रश्न उठाये गये हैं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बन्धन किसे कहा है? तथा क्या जान कर उसे तोड़ दे ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर इस दूसरी गाथा में दिया गया है । यथा - - - Jain Education International - 3 ५ - उपयोग अर्थात् ज्ञान को चित्त कहते हैं। वह चित्त ( जिसमें ज्ञान रहता है) उसे चित्तवत् (चित्तवान) कहते हैं । こ For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक के छठे अध्ययन की २१ वीं गाथा में कहा है सूत्र "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो", इइ वुत्तं महेसिणा । अर्थ - महर्षि महावीर स्वामी ने मूर्च्छा (ममत्व भाव) को परिग्रह कहा है। श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय में कहा है मूर्च्छा - परिग्रहः ॥ १२ ॥ - www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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