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___ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रहित कम बोलने वाला होवे तथा आचार्य आदि के पास में मोक्ष अर्थ वाले आगमों को सीखे और निरर्थक अर्थात् मोक्ष अर्थ से रहित ज्योतिष, वैद्यक, आदि विद्याओं का त्याग करे । - सांसारिक डिग्रियां प्राप्त करने के लिये गृहस्थों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है । अध्यापकों एवं प्रोफेसरों को वेतन दिलाना, कॉलेज, युनिवर्सिटी आदि के फार्म भरना आदि परिग्रह के प्रपञ्च में पड़ना पड़ता है इसलिये ये सांसारिक डिग्रियां प्राप्त करना साधु साध्वियों के लिये उचित नहीं है । पञ्च परमेष्ठी रूप णमोकार रूपी महामंत्र का पांचवां पद प्राप्त हो गया तो मुनि पद के सामने सब डिग्रियां हलकी और तुच्छ हैं क्योंकि मुनिपद के आगे चक्रवर्ती पद भी नीचा है । यहां तक कि अरिहंत, सिद्ध आदि चार पद प्राप्त करने का मूल भी पांचवां पद है ।
विद्या का फल है शान्ति प्राप्त करना । वह सांसारिक विद्याओं से प्राप्त नहीं होता है । जैसा कि कहा है -
उपशमफलाद् विद्याबीजात् फलं धनमिच्छतां, भवति विफलो यद्ययासस्तदत्र किं अदभुतम् ?। न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्तरमीशते, जनयंति खलु प्रीहेबीजं न जातु यवाङ्कुरम् ।।१।।
अर्थ - विद्या रूपी बीज शान्ति रूप फल को उत्पन्न करता है उस विद्या रूपी बीज से जो धन रूपी फल चाहता है उसका परिश्रम यदि व्यर्थ हो तो इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि पदार्थों का फल नियत होता है इसलिये जिस पदार्थ का जो फल है उससे अन्य फल वह नहीं दे सकता है । क्योंकि जव (धान्य) का बीज चावल का अङ्कर कभी उत्पन्न नहीं कर सकता है ।
इच्चेव पडिलेहंति, वलया पडिलेहिणो । वितिगिच्छ समावण्णा, पंथाणं च अकोविया ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - पडिलेहंति - विचार करते हैं, वितिगिच्छ समावण्णा - विचिकित्सा समापनकसंशय करने वाले, पंथाणं - मार्ग के, अकोविया - नहीं जानने वाले ।
भावार्थ - 'मैं इस संयम का पालन कर सकूँगा या नहीं' इस प्रकार संशय करने वाले अल्प पराक्रमी जीव, युद्ध के अवसर में छिपने का स्थान अन्वेषण करने वाले कायर के समान तथा मार्ग को नहीं जानने वाले अज्ञानी के समान यही सोचते रहते हैं कि संयम से भ्रष्ट होने पर इन व्याकरण आदि विद्याओं से मेरी रक्षा हो सकेगी।
जे उ संगामकालम्मि, णाया सूरपुरंगमा । णो ते पिट्ठमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया ॥६॥
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