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एवं तु समणा एगे, अबलं णच्चाणं अप्पगं ।
अणागयं भयं दिस्स, अवकप्पंतिमं सुयं ॥ ३ ॥
अध्ययन ३ उद्देशक ३
कठिन शब्दार्थ दिस्स देख कर, अवकप्पंति - रक्षक मानते हैं ।
भावार्थ - इसी प्रकार कोई श्रमण जीवनभर संयम पालन करने में अपने को समर्थ नहीं देखकर भविष्यत् काल में होनेवाले दुःखों से बचने के लिए व्याकरण और ज्योतिष आदि शास्त्रों को अपना रक्षक मानते हैं ।
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अबलं - निर्बल, असमर्थ अणागयं अनागत- भविष्य के, भयं भय को,
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को जाणइ विऊवातं, इत्थीओ उदगाउ वा ।
चोइज्जता पवक्खामो, ण णो अस्थिपकप्पियं ॥४॥
कठिन शब्दार्थ - विऊवातं (वियावायं ) - व्यापात - संयम भ्रष्ट उदगाउ- उदक- कच्चे पानी से, चोइज्जता - किसी के पूछने पर, पवक्खामो - बतावेंगे, पकप्पियं पूर्वोपार्जित द्रव्य ।
भावार्थ - संयम पालन करने में अस्थिरचित्त पुरुष यह सोचता है कि " स्त्री सेवन से अथवा कच्चे पानी के स्नान से, किस प्रकार मैं संयम भ्रष्ट होऊँगा यह कौन जानता है ? मेरे पास पूर्वोपार्जित द्रव्य भी नहीं है अतः यह जो हमने हस्तिशिक्षा और धनुर्वेद आदि विद्याओं का शिक्षण प्राप्त किया है इनसे ही संकट के समय मेरा निर्वाह हो सकेगा ।
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विवेचन - संयम अङ्गीकार करने के बाद साधक को चाहिये कि वह वीतराग प्रणीत आगमों का अध्ययन करें । किन्तु ज्योतिष, हस्तरेखा आदि पापसूत्रों का अध्ययन न करें । इस सन्दर्भ में यह भी जान लेना चाहिये कि B. A., M. A., Ph. D., D. Lt. आदि सांसारिक उपाधियां प्राप्त करने में परिश्रम न करे क्योंकि ये सब पापसूत्रों की गिनती में आते हैं । गृहस्थ लोग दो प्रयोजनों के लिये इन डिग्रियों को प्राप्त करते हैं । यथा - १. M. A. आदि का सर्टिफिकेट हो तो सरकारी नौकरी आदि सरलता से मिल सकती है जिससे जीवन निर्वाह सरलता से हो सकता है । दूसरा प्रयोजन शादी विवाह का है कि M. A. आदि की डिग्री प्राप्त हो तो अच्छा घर, वधू, वर मिल सकता है । पंचमहाव्रतधारी साधु को ये दोनों काम करने नहीं है । उनको तो वह तीन करण तीन योग से त्यागं कर चुका हैं । उसका लक्ष्य तो मोक्ष का है ।
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णिस्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अंतिए सया ।
अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, णिरद्वाणि उ वज्जए ।
(उत्तराध्ययन सूत्र अ. १ गाथा ८ )
अर्थ - मोक्ष मार्ग के साधक साधु साध्वी को चाहिये कि सदा अतिशय शान्त और वाचालता
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